श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
श्रीभगवानुवाच
उत्तर- ‘सुदुर्दर्शम्’ विशेषण देकर भगवान् ने अपने चतुर्भुज दिव्यरूप के दर्शन की दुर्लभता और उसकी महत्ता दिखलायी है। तथा ‘इदम्’ पद निकटवर्ती वस्तु का निर्देश करने वाला होने से इसके द्वारा विश्वरूप के पश्चात् दिखलाये जाने वाले चतुर्भुजरूप का संकेत किया गया है। अभिप्राय यह है कि मेरे जिस चतुर्भुज, मायातीत, दिव्य गुणों से युक्त नित्यरूप के तुमने दर्शन किये हैं उस रूप के दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं; इसके दर्शन उसी को हो सकते हैं, जो मेरा अनन्य भक्त होता है और जिस पर मेरी कृपा का पूर्ण प्रकाश हो जाता है। प्रश्न- देवता लोग भी सदा इस रूप का दर्शन करने की इच्छा रखते हैं; इस कथन का क्या अभिप्राय है? तथा इस वाक्य में ‘अपि’ पद के प्रयोग का क्या भाव है? उत्तर- इस कथन से भी भगवान् ने अपने चतुर्भुजरूप के दर्शन की दुर्लभता और उसकी महत्ता ही प्रकट की है। तथा ‘अपि’ पद के प्रयोग से यह भाव दिखलाया है कि जब देवतालोग भी सदा इसके देखने की इच्छा रखते हैं, किन्तु सब देख नहीं पाते तो फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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