श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
अर्जुन उवाच
उत्तर- भगवान् का जो मानुषरूप था वह बहुत ही मधुर, सुन्दर और शान्त था; तथा पिछले श्लोक में जो भगवान् के सौम्यवपु हो जाने की बात कही गयी है, वह भी मानुषरूप को लक्ष्य करके ही कही गयी है- इसी बात को स्पष्ट करने के लिये यहाँ ‘रूपम्’ के साथ ‘सौम्यम्’ और ‘मानुषम्’- इन दोनों विशेषणों का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- ‘सचेताः संवृत्तः’ और ‘प्रकृतिं गतः’ का क्या भाव है? उत्तर- भगवान् के विराट् रूप को देखकर अर्जुन के मन में भय, व्यथा और मोह आदि विकार उत्पन्न हो गये थे- उन सबका अभाव इन पदों के प्रयोग से दिखलाया गया है। अभिप्राय यह है कि आपके इस श्यामसुन्दर मधुर मानुषरूप को देखकर अब मैं स्थिरचित हो गया हूँ, अर्थात् मेरा मोह, भ्रम और व्याकुलता एवं कम्प आदि जो अनेक प्रकार के विकार मेरे मन, इन्द्रिय और शरीर में उत्पन्न हो गये थे- उन सबके दूर हो जाने से अब मैं पूर्ववत् स्वस्थ हो गया हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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