श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
उत्तर- इसमें कोई विरोध की बात नहीं है, क्योंकि कर्मों को भगवान् के अर्पण करना अनन्य भक्ति का एक अंग है। पचपनवें श्लोक में अनन्य भक्ति का वर्णन करते हुए भगवान् ने स्वयं ‘मत्कर्मकृत्’ (मेरे लिये कर्म करने वाला) पद का प्रयोग किया है और चौवनवें श्लोक में यह स्पष्ट घोषणा की है कि अनन्य भक्ति के द्वारा मेरे इस स्वरूप को देखना, जानना और प्राप्त करना सम्भव है। अतएव यहाँ यह समझना चाहिये कि निष्कामभाव से भगवदर्थ और भगवदर्पणबुद्धि से किये हुए यज्ञ, दान और तप आदि कर्म भक्ति के अंग होने के कारण भगवान् की प्राप्ति में हेतु हैं- सकामभाव से किये जाने पर नहीं। अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त यज्ञादि क्रियाएँ भगवान् का दर्शन कराने में स्वभाव से समर्थ नहीं हैं। भगवान् के दर्शन तो प्रेमपूर्वक भगवान् के शरण होकर निष्कामभाव से कर्म करने पर भगवत्कृपा से ही होते हैं। प्रश्न- यहाँ ‘एवंविधः’ और ‘मां यथा दृष्टवानसि’ के प्रयोग से यदि यह बात मान ली जाय कि भगवान् ने जो अपना विश्वरूप अर्जुन को दिखलाया था, उसी के विषय में मैं वेदों द्वारा नहीं देखा जा सकता आदि बातें भगवान् ने कही हैं; तो क्या हानि है? उत्तर- विश्वरूप की महिमा में प्रायः इन्हीं पदों का प्रयोग अड़तालीसवें श्लोक में हो चुका है; इस श्लोक को पुनः उसी विश्वरूप की महिमा मान लेने से पुनरुक्ति का दोष आता है। इसके अतिरिक्त, उस विश्वरूप के लिये तो भगवान् ने कहा है कि यह तुम्हारे अतिरिक्त दूसरे किसी के द्वारा नहीं देखा जा सकता; और इसके देखने के लिये अगले श्लोक में उपाय भी बतलाते हैं। इसलिये जैसा माना गया है, वही ठीक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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