श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
दशम अध्याय
उत्तर- विषयों की ओर दौड़ने वाली इन्द्रियों को उनसे रोककर अपने अधीन बना लेना- उन्हें मनमानी न करने देना ‘दम’ कहलाता है। और मन को भलीभाँति संयत करके उसे अपने अधीन बना लेने को ‘शम’ कहते हैं। प्रश्न- ‘सुख’ और ‘दुःख’ का क्या अर्थ है? उत्तर- प्रिय (अनुकूल) वस्तु के संयोग से और अप्रिय (प्रतिकूल) के वियोग से होने वाले सब प्रकार के सुखों का वाचक यहाँ ‘सुख’ है। इसी प्रकार प्रिय के वियोग से और अप्रिय के संयोग से होने वाले आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक-[1] सब प्रकार के दुःखों का वाचक यहाँ ‘दुःख’ शब्द है। प्रश्न- ‘भव’ और ‘अभाव’ तथा ‘भय’ और ‘अभय’ शब्दों का क्या अर्थ है? उत्तर- सर्गकाल में समस्त चराचर जगत् का उत्पन्न होना ‘भव’ है, प्रलयकाल में उसका लीन हो जाना ‘अभाव’ है। किसी प्रकार की हानि या मृत्यु के कारण को देखकर अन्तःकरण में उत्पन्न होने वाले भाव का नाम ‘भय’ है और सर्वत्र एक परमेश्वर को व्याप्त समझ लेने से अथवा अन्य किसी कारण से भय का जो सर्वथा अभाव हो जाना है वह ‘अभय’ है। प्रश्न- ‘अहिंसा’, ‘समता’ और ‘तुष्टि’ की परिभाषा क्या है? उत्तर- किसी भी प्राणी को किसी भी समय किसी भी प्रकार से मन वाणी या शरीर के द्वारा जरा भी कष्ट न पहुँचाने के भाव को ‘अहिंसा’ कहते हैं। सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय, निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, मित्र-शत्रु आदि जितने भी क्रिया, पदार्थ और घटना आदि विषमता के हेतु माने जाते हैं, उन सबमें निरन्तर राग-द्वेषरहित समबुद्धि रहने के भाव को ‘समता’ कहते हैं। जो कुछ भी प्राप्त हो जाय, उसे प्रारब्ध का भोग या भगवान् का विधान समझकर सदा सन्तुष्ट रहने के भाव को ‘तुष्टि’ कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि प्राणियों के निमित्त से प्राप्त होने वाले कष्टों को ‘आधिभौतिक’, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, भूकम्प, वज्रपात और अकाल आदि दैवी प्रकोप से होने वाले कष्टों को ‘आधिदैविक’ और शरीर, इन्द्रिय तथा अन्तःकरण में किसी प्रकार के रोग से होने वाले कष्टों को ‘आध्यात्मिक’ दुःख कहते हैं।
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