श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
दशम अध्याय
उत्तर- स्वधर्म-पालन के लिये कष्ट सहन करना ‘तप’ है, अपने स्वत्व को दूसरों के हित के लिये वितरण करना ‘दान’ है, जगत् में कीर्ति होना ‘यश’ है और अपकीर्ति का नाम ‘अयश’ है। प्रश्न- प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं, इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि विभिन्न प्राणियों के उनकी प्रकृति के अनुसार उपर्युक्त प्रकार के जितने भी विभन्न भाव होते हैं, वे सब मुझसे ही होते हैं, अर्थात् वे सब मेरी ही सहायता, शक्ति और सत्ता से होते हैं। प्रश्न - यहाँ इन दो श्लोकों में सुख, भव, अभय और यश- इन चार ही भावों के विरोधी भाव दुःख, अभाव, भय और अपयश का वर्णन किया गया है। क्षमा, सत्य, दम और अहिंसा आदि भावों के विरोधी भावों का वर्णन क्यों नहीं किया गया? उत्तर- दुःख, अभाव, भय और अपयश आदि भाव जीवों को प्रारब्ध भोग कराने के लिये उत्पन्न होते हैं; इसलिये इन सबका उद्भव कर्मफलदाता और जगत् के नियन्त्रण कर्ता भगवान् से होना ठीक ही है। परंतु क्षमा, सत्य, दम और अहिंसा आदि के विरोधी क्रोध, असत्य, इन्द्रियों का दासत्त्व और हिंसा आदि दुर्गुण और दुराचार भगवान् से नहीं उत्पन्न होते। वरं गीता में ही दूसरे स्थानों में इन दुर्गुण-दुराचारों की उत्पत्ति का मूल-कारण-अज्ञानजनित ‘काम’ बतलाया गया है[1] और इन्हें मूलसहित त्याग देने की प्रेरणा की गयी है। इसलिये सत्य आदि सद्गुण और सदाचारों के विरोध भावों का वर्णन यहाँ नहीं किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3। 37
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज