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दशम अध्याय
बुद्धिर्ज्ञानमसंमोह: क्षमा सत्यं दम: शम: ।
सुखं दु:खं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।। 4 ।।
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयश: ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधा:।। 5 ।।
निश्चय करने की शक्ति, यथार्थ ज्ञान, असम्मुढता, क्षमा, सत्य, इन्द्रियों का वश में करना, मन का निग्रह तथा सुख-दुख, उत्पत्ति-प्रलय और भय-अभय तथा अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान कीर्ति, और अपकीर्ति- ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं।। 4-5 ।।
प्रश्न- ‘बुद्धि’, ‘ज्ञान’ और ‘असम्मोह’- ये तीनों शब्द भिन्न-भिन्न किन भावों के वाचक हैं?
उत्तर- कर्तव्य-अकर्तव्य, ग्राह्य-अग्राह्य और भले-बुरे आदि का निर्णय करके निश्चय करने वाली जो वृत्ति है, उसे ‘बुद्धि’ कहते हैं। किसी भी पदार्थ को यथार्थ जान लेना ‘ज्ञान’ है; यहाँ ‘ज्ञान’ शब्द साधारण ज्ञान से लेकर भगवान् के स्वरूपज्ञान तक सभी प्रकार के ज्ञान का वाचक है। भोगासक्त मनुष्यों को नित्य और सुखप्रद प्रतीत होने वाले समस्त सांसारिक भोगों को अनित्य, क्षणिक और दुःखमूलक समझकर उनमें मोहित न होना-यही ‘असम्मोह’ है।
प्रश्न- ‘क्षमा’ और ‘सत्य’ किसके वाचक हैं?
उत्तर- बुरा चाहना, बुरा कहना, धनादि हर लेना, अपमान करना, आघात पहुँचाना, कड़ी जबान कहना या गाली देना, निन्दा या चुगली करना, आग लगाना, विष देना, मार डालना और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष में क्षति पहुँचाना आदि जितने भी अपराध हैं, इनमें से एक या अधिक किसी प्रकार का भी अपराध करने वाला कोई भी प्राणी क्यों न हो, अपने में बदला लेने का पूरा सामर्थ्य रहने पर भी उससे उस अपराध का किसी प्रकार भी बदला लेने की इच्छा का सर्वथा त्याग कर देना और उस अपराध के कारण उसे इस लोक या परलोक में कोई भी दण्ड न मिले-ऐसा भाव होना ‘क्षमा’ है।
इन्द्रिय और अन्तःकरण द्वारा जो बात जिस रूप में देखी, सुनी और अनुभव की गयी हो, ठीक उसी रूप में दूसरे को समझाने के उद्देश्य से हितकर प्रिय शब्दों में उसको प्रकट करना ‘सत्य’ है।
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