श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
नवम अध्याय
प्रश्न- इस सुखरहित और क्षणभंगुर शरीर को पाकर तू मेरा ही भजन कर- इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- मनुष्य देह बहुत ही दुर्लभ है। यह बड़े पुण्यबल से और खास करके भगवान् की कृपा से मिलता है और मिलता है केवल भगवत्प्राप्ति के लिय ही। इस शरीर को पाकर जो भगवत्प्राप्ति के लिये साधन करता है, उसी का मनुष्य जीवन सफल होता है। जो इसमें सुख खोजता है, वह तो असली लाभ से वंचित ही रह जाता है। क्योंकि यह सर्वथा सुखरहित है, इसमें कहीं सुख का लेश भी नहीं है। जिन विषयभोगों के सम्बन्ध को मनुष्य सुखरूप समझता है, वह बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालने वाला होने के कारण वस्तुतः दुःखरूप ही है। अतएव इसको सुखरूप न समझकर यह जिस उद्देश्य की सिद्धि के लिये मिला है, उस उद्देश्य को शीघ्र-से-शीघ्र प्राप्त कर लेना चाहिये। क्योंकि यह शरीर क्षणभंगुर है; पता नहीं, किस क्षण इसका नाश हो जाय! इसलिये सावधान हो जाना चाहिये। न इसे सुखरूप समझकर विषयों में फँसना चाहिये और न इसे नित्य समझकर भजन में देर ही करनी चाहिये। कदाचित् अपनी असावधानी में यह व्यर्थ ही नष्ट हो गया तो फिर सिवा पछताने के और कुछ भी उपाय हाथ में नहीं रह जायगा। श्रुति कहती है- इह चेदवेदीदथ सत्यत्रस्ति न चेहिहावेदीन्महती विनष्टिः।[1]
इसलिये भगवान् कहते हैं कि ऐसे शरीर को पाकर नित्य-निरन्तर मेरा भजन ही करो। क्षणभर भी मुझे मत भूलो। प्रश्न- ‘ माम्’ पद किसका वाचक है तथा उसको भजना क्या है और भजन के लिये आज्ञा देने में क्या हेतु है? उत्तर- ‘माम्’ पद यहाँ सगुण परमेश्वर का वाचक है, और गले श्लोक में बतलायी हुई विधि से भगवान् के परायण हो जाना अर्थात् अपने मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर आदि को भगवान् के ही समर्पण कर देना उनका भजन करना है। और भजन से ही भगवान् की प्राप्ति शीघ्र होती है तथा भगवत्प्राप्ति में ही मनुष्य जीवन के उद्देश्य की सफलता है, इसी हेतु से भजन करने के लिये कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ केनोपनिषद् 2। 5
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