श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
नवम अध्याय
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
उत्तर- भगवान् ही सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, सर्वलोक महेश्वर, सर्वातीत, सर्वमय, निर्णुण-सगुण, निराकार-साकार, सौन्दर्य माधुर्य और ऐश्वर्य के समुद्र और परम प्रेमस्वरूप हैं- इस प्रकार भगवान् के गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्य का यथार्थ परिचय हो जाने से जब साधक को यह निश्चय हो जाता है कि एकमात्र भगवान् ही हमारे परम प्रेमास्पद हैं, तब जगत् की किसी भी वस्तु में उसकी जरा भी रमणीय-बुद्धि नहीं रह जाती। ऐसी अवस्था में संसार के किसी दुर्लभ-से-दुर्लभ भोग में भी उसके लिये कोई आकर्षण नहीं रहता। जब इस प्रकार की स्थिति हो जाती है, तब स्वाभाविक ही इस लोक और परलोक की समस्त वस्तुओं से उसका मन सर्वथा हट जाता है और वह अनन्य तथा परम प्रेम और श्रद्धा के साथ निरन्तर भगवान् का ही चिन्तन करता रहता है। भगवान् का यह प्रेमपूर्ण चिन्तन ही उसके प्राणों का आधार होता है, वह क्षणमात्र की भी उनकी विस्मृति को सहन नहीं कर सकता। जिसकी ऐसी स्थिति हो जाती है, उसी को भगवान् में मन वाला कहते हैं। प्रश्न- भगवान् का भक्त होना क्या है? उत्तर- भगवान् ही परमगति हैं, वे ही एकमात्र भर्ता और स्वामी हैं, वे ही परम आश्रय और परम आत्मीय संरक्षक हैं, ऐसा मानकर उन्हीं पर निर्भर हो जाना, उनके प्रत्येक विधान में सदा ही सन्तुष्ट रहना, उन्हीं की आज्ञा का अनुसरण करना, भगवान् के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीला आदि के श्रवण, कीर्तन, स्मरण आदि में अपने मन, बुद्धि और इन्द्रियों को निमग्न रखना और उन्हीं की प्रीति के लिये प्रत्येक कार्य करना-इसी का नाम भगवान् का भक्त बनना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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