श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
नवम अध्याय
अन्त में भगवान् ने कहा- ‘तुम्हें अपनी रक्षा करनी हो तो हे ब्रह्मन्! तुम्हारा कल्याण हो, तुम उसी महाभाग राजा अम्बरीष के समीप जाओ और उससे क्षमा माँगो; तभी तुमको शान्ति मिलेगी।’ भगवान् की आज्ञा पाकर दुर्वासा जी लौट चले। इधर भक्तशिरोमणि अम्बरीष की विचित्र अवस्था थी। जबसे दुर्वासा जी के पीछे चक्र चला था तभी से राजर्षि अम्बरीष ऋषि के सन्ताप से सन्तप्त हो रहे थे। अम्बरीष जी ने मन में सोचा, ब्राह्मण भूखे गये हैं और मेरे ही कारण उन्हें मृत्युभय से त्रस्त होकर इतना दौड़ना पड़ रहा है; इस अवस्था में मुझे भोजन करने का क्या अधिकार है? यों विचारकर राजा ने उसी क्षण से अन्न त्याग दिया और वे केवल जल पीकर रहने लगे। दुर्वासा जी के लौटकर आने में पूरा एक वर्ष बीत गया, परंतु अम्बरीष जी का व्रत नहीं टला। दुर्वासा जी ने आते ही राजा के चरण पकड़ लिये। राजा को बड़ा संकोच हुआ। उन्होंने बड़ी विनय के साथ सुर्दशन की स्तुति करते हुए कहा, ‘यदि मेरे मन में दुर्वासा जी के प्रति जरा भी द्वेष न हो और सब प्राणियों के आत्मा श्रीभगवान् मुझ पर प्रसन्न हों तो आप शान्त हो जायँ और ऋषि को संकट से मुक्त करें!’ सुदर्शन शान्त हो गया। दुर्वासा जी भयरूपी अग्नि से जल रहे थे, अब वे स्वस्थ हुए और उनके चेहरे पर हर्ष और कृतज्ञता के चिह्न स्पष्ट रूप से प्रकट हो गये![1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत, नवम स्कन्ध, अध्याय 4-5
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