श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
नवम अध्याय
कृत्या अम्बरीष तक पहुँच ही नहीं पायी थी कि भगवान् के सुदर्शन चक्र ने कृत्या को उसी क्षण ऐसे भस्म कर दिया जैसे प्रचण्ड दावानल कुपित सर्प को भस्म कर डालता है। अब सुदर्शन ऋषि दुर्वासा की खबर लेने के लिये उनके पीछे चला। दुर्वासा बड़े घबड़ाये और प्राण लेकर भागे। चक्र उनके पीछे-पीछे चला। दुर्वासा दसों दिशाओं और चौदहों भुवनों में भटके। परंतु कहीं भी उन्हें ठहरने को ठौर नहीं मिली। किसी ने भी उन्हें आश्रय और अभयदान नहीं दिया। अन्त में बेचारे वैकुण्ठ में गये और भगवान् श्रीविष्णु के चरणों में पड़कर गिड़गिड़ाते हुए बोले- ‘हे प्रभो! मैंने आपके प्रभाव को न जानकर आपके भक्त का अपमान किया है, मुझे इस अपराध से छुड़ाइये। आपके नामकीर्तन मात्र से ही नरक के जीव भी नरक के कष्टों से छूट जाते हैं, अतएव मेरा अपराध क्षमा कीजिये।’ भगवान् ने कहा- ‘हे ब्राह्मण! मैं भक्त के अधीन हूँ, स्वतन्त्र नहीं हूँ। मुझे भक्तजन बड़े प्रिय हैं, मेरे हृदय पर उनका पूर्ण अधिकार है। जिन्होंने मुझको ही अपनी परमगति माना है उन अपने परमभक्त सत्पुरुषों के सामने मैं अपने आत्मा और सम्पूर्ण श्री (या अपनी लक्ष्मी) को भी कुछ नहीं समझता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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