श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
उत्तर- संसार के सम्पूर्ण विषयों को मायामय और क्षणिक समझ लेने के कारण जिसकी किसी भी विषय में जरा भी आसक्ति नहीं रह गयी है और इसलिये जिसकी इन्द्रियाँ विषयों में कोई रस न पाकर उनसे निवृत्त हो गयी हैं तथा लोकसंग्रह के लिये वह अपने इच्छानुसार उन्हें यथायोग्य जहाँ लगाता है वहीं लगती हैं, न तो स्वच्छन्दता से कहीं जातीं हैं और न उसके मन में किसी प्रकार का क्षोभ ही उत्पन्न करती हैं-इस प्रकार जिसकी इन्द्रियाँ अपने अधीन हैं, वह पुरुष ‘विजितेन्द्रिय’ है। प्रश्न- ‘समलोष्टाश्मकान्चनः’ का क्या भाव है? उत्तर- मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण आदि समस्त पदार्थों में परमात्म-बुद्धि हो जाने के कारण जिसके लिये तीनों ही सम हो गये हैं; जो अज्ञानियों की भाँति सुवर्ण में आसक्त नहीं होता और मिट्टी, पत्थर आदि से द्वेष नहीं करता, सबको एक ही समान समझता है, वह ‘समलोष्टाश्मकांचन’ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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