षष्ठ अध्याय
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।। 9 ।।
सुहृद, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और बन्धुगुणों में, धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव रखने वाला अत्यन्त श्रेष्ठ है।। 9 ।।
प्रश्न- ‘सुहृद्’ और ‘मित्र’ में क्या भेद है?
उत्तर- सम्बन्ध और उपकार आदि की अपेक्षा न करके बिना ही कारण स्वभावतः प्रेम और हित करने वाले, ‘सुहृद्’ कहलाते हैं तथा परस्पर प्रेम और एक-दूसरे का हित करने वाले ‘मित्र’ कहलाते हैं।
प्रश्न- ‘अरि’ (वैरी) और ‘द्वेष्य’ (द्वेषपात्र) में क्या अन्तर है?
उत्तर - किसी निमित्त से बुरा करने की इच्छा या चेष्टा करने वाला ‘वैरी’ है और स्वभाव से ही प्रतिकूल आचरण करने के कारण जो द्वेष का पात्र हो, वह ‘द्वेष्य’ कहलाता है।
प्रश्न- ‘मध्यस्थ’ और ‘उदासीन’ में क्या भेद है?
उत्तर- परस्पर झगड़ा करने वालों में मेल कराने की चेष्टा करने वाले को और पक्षपात छोड़कर उनके हित के लिये न्याय करने वाले को ‘मध्यस्थ’ कहते हैं तथा उनसे किसी प्रकार भी सम्बन्ध न रखने वाले को ‘उदासीन’ कहते हैं।
प्रश्न- यहाँ ‘अपि’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- सुहृद, मित्र, उदासीन, मध्यस्थ और साधु-सदाचारी पुरुषों में एवं अपने कुटुम्बियों में मनुष्य का प्रेम होना स्वाभाविक है। ऐसे ही वैरी, द्वेष्य और पापियों के प्रति द्वेष और घृणा का होना स्वाभाविक है। विवेकशील पुरुषों में भी इन लोगों के प्रति स्वाभाविक राग-द्वेष सा देखा जाता है। ऐसे परस्पर अत्यन्त विरुद्ध स्वभाव वाले मनुष्यों के प्रति राग-द्वेष और भेद-बुद्धि का न होना बहुत ही कठिन बात है, उनमें भी जिसका समभाव रहता है, उसका अन्यत्र समभाव रहता है इसमें तो कहना ही क्या है। यह भाव दिखलाने के लिये ‘अपि’ का प्रयोग किया गया है।
प्रश्न- ‘समबुद्धिः’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- सर्वत्र परमात्म-बुद्धि हो जाने के कारण उन उपर्युक्त अत्यन्त विलक्षण स्वभाव वाले मित्र, वैरी, साधु और पापी आदि के आचरण, स्वभाव और व्यवहार के भेद का जिसपर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता, जिसकी बुद्धि में किसी समय, किसी भी परिस्थिति में, किसी भी निमित्त भेदभाव से नहीं आता, उसे ‘समबुद्धि’ समझना चाहिये।
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