श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
सम्बन्ध- मन-इन्द्रियों के सहित शरीर को वश में करने का फल परमात्मा की प्राप्ति बतलाया गया। अतः परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण जानने की इच्छा होने पर अब दो श्लोकों द्वारा उसके लक्षणों का वर्णन करते हुए उसकी प्रशंसा करते हैं- ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रिय: ।
उत्तर- परमात्मा के निर्गुण-निराकार तत्त्व के प्रभाव तथा माहात्म्य आदि के रहस्य सहित यथार्थ ज्ञान को ‘ज्ञान’ और सगुण निराकार एवं साकार तत्त्व के लीला, रहस्य, महत्त्व, गुण और प्रभाव आदि के यथार्थ ज्ञान को ‘विज्ञान’ कहते हैं। जिस पुरुष को परमात्मा के निगुर्ण-सगुण, निराकार-साकार तत्त्व का भली-भाँति ज्ञान हो गया है, जिसका अन्तःकरण उपर्युक्त दोनों तत्त्वों के यथार्थ ज्ञान से भलीभाँति तृप्त हो गया है, जिसमें अब कुछ भी जानने की इच्छा शेष नही रह गयी है, वह ‘ज्ञानविज्ञान तृप्तात्मा’ है। प्रश्न- यहाँ ‘कूटस्थः’ पद का क्या अभिप्राय है? उत्तर- सुनारों या लोहारों के यहाँ रहने वाले लोहे के ‘अहरन’ या ‘निहाई’ को ‘कूट’ कहते हैं; उस पर सोना, चाँदी, लोहा आदि रखकर हथौड़े से कूटा जाता है। कूटते समय उस पर बार-बार गहरी चोट पड़ती है फिर भी वह हिलता-डुलता नहीं, बराबर अचल रहता है। इसी प्रकार जो पुरुष तरह-तरह के बड़े-से-बड़े दुःखों के आ पड़ने पर भी अपनी स्थिति से तनिक भी विचलित नहीं होता, जिसके अन्तःकरण में जरा भी विकार उत्पन्न नहीं होता और जो सदा-सर्वदा अचलभाव से परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है उसे ‘कूटस्थ’ कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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