श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
उत्तर- पहले युद्ध को उचित समझकर ही अर्जुन लड़ने के लिये तैयार होकर रणभूमि में आये थे और उन्होंने भगवान् से दोनों सेनाओं के बीच में अपना रथ खड़ा करने को कहा था; फिर जब उन्होंने दोनों सेनाओं में उपस्थित अपने बन्धु-बान्धवों को मरने के लिये तैयार देखा तो मोह के कारण वे चिन्तामग्न हो गये और युद्ध को पापकर्म समझने लगे।[1] इस पर भगवान् के द्वारा युद्ध करने के लिये कहे जाने पर भी[2] वे अपना कर्तव्य निश्चय न कर सके और किंकर्तव्यविमूढ़ होकर कहने लगे कि ‘मैं गुरुजनों के साथ कैसे युद्ध कर सकूँगा[3]; मेरे लिये क्या करना श्रेष्ठ है और इस युद्ध में किसकी विजय होगी, इसका कुछ भी पता नहीं है[4] तथा मेरे लिये जो कल्याण का साधन हो, वही आप मुझे बतलाइये, मेरा चित्त मोहित हो रहा है।[5] इससे यह बात स्पष्ट होती है कि अर्जुन के अन्तःकरण में संशय विद्यमान था, उनकी विवेकशक्ति मोह के कारण कुछ दबी हुई थी; इसी से वे अपने कर्तव्य का निश्चय नहीं कर सकते थे। इसके सिवा छठे अध्याय में अर्जुन ने कहा है कि मेरे इस संशय का छेदन करने में आप ही समर्थ हैं[6] और गीता का उपदेश सुन चुकने के बाद कहा है कि अब मैं सन्देहरहित हो गया हूँ[7] एवं भगवान् ने भी जगह-जगह[8] अर्जुन से कहा है कि मैं जो कुछ तुम्हें कहता हूँ, उसमें संशय नहीं है; इसमें तुम शंका न करो। इससे भी यही सिद्ध होता है कि अर्जुन के अन्तःकरण में संशय था और उसी के कारण वे अपने स्वधर्मरूप युद्ध का त्याग करने के लिये तैयार हो गये थे। इसलिये भगवान् यहाँ उन्हें उनके हृदय में स्थित संशय का छेदन करने के लिये कहकर यह भाव दिखलाते हैं कि मैं तुम्हें जो आज्ञा दे रहा हूँ, उसमें किसी प्रकार की शंका न करके उसका पालन करने के लिये तुम्हें तैयार हो जाना चाहिये। प्रश्न- यहाँ अर्जुन को अपने आत्मा का संशय छेदन करने के लिये कहने का क्या भाव है? उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुम मेरे भक्त और सखा हो, अतः तुम्हें उचित तो यह है कि दूसरों के अन्तःकरण में भी यदि कोई शंका हो तो उनको समझाकर उसका छेदन कर डालो; पर ऐसा न कर सको तो तुम्हें कम-से-कम अपने संशय का छेदन तो कर ही डालना चाहिये। प्रश्न- योग में स्थित हो जा और युद्ध के लिये खड़ा हो जा, यह कहने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- इससे भगवान् ने अध्याय का उपसंहार करते हुए यह भाव दिखलाया है कि मैं तुम्हें जो कुछ भी कहता हूँ, तुम्हारे हित के लिये ही कहता हूँ, अतः उसमें शंका रहित होकर फिर युद्ध के लिये तैयार हो जाओ। ऐसा करने से तुम्हारा सब प्रकार से कल्याण होगा। ऊँ तत्सदिति श्रीमदगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञान कर्म संन्यास योगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ।।4।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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