श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्मा सनातनम् ।
उत्तर- लोकप्रसिद्धि में देवताओं के निमित्त अग्नि में घृतादि पदार्थों का हवन करना यज्ञ है और उससे बचा हुआ हविष्यान्न ही यज्ञशिष्ट अमृत है। इसी तरह स्मृतिकारों ने जिन पंचमहायज्ञादि का वर्णन किया है उनमें देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य और अन्य प्राणिमात्र के लिये यथाशक्ति विधिपूर्वक अन्न का विभाग कर देने के बाद बचे हुए अन्न को यज्ञशिष्ट अमृत कहा है; किंतु यहाँ भगवान् ने उपर्युक्त यज्ञ के रूपक में परमात्मा की प्राप्ति के ज्ञान, संयम, तप, योग, स्वाध्याय, प्राणायाम आदि ऐसे साधनों का भी वर्णन किया है जिनमें अन्न का सम्बन्ध नहीं है। इसलिये यहाँ उपर्युक्त साधनों का अनुष्ठान करने से साधकों का अन्तःकरण शुद्ध होकर उसमें जो प्रसादरूप प्रसन्नता की उपलब्धि होती है[1], वही यज्ञ से बचा हुआ अमृत है, क्योंकि वह अमृतस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति में हेतु है तथा उस विशुद्ध भाव से उत्पन्न सुख में नित्यतृप्त रहना ही यहाँ उस अमृत का अनुभव करना है। प्रश्न- उपर्युक्त परमात्मप्राप्ति के साधनरूप यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले पुरुषों को सनातन परब्रह्म की प्राप्ति इसी जन्म में हो जाती है या जन्मान्तर में होती है? उत्तर- यह उनके साधन की स्थिति पर निर्भर है। जिसके साधन में भाव की कमी नहीं होती, उसको तो इसी जन्म में और बहुत ही शीघ्र सनातन परब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है; जिसके साधन में किसी प्रकार की त्रुटि रह जाती है, उसको उस कमी की पूर्ति होने पर होती है, परंतु उपर्युक्त साधन व्यर्थ कभी नहीं होते, इनके साधकों को परमात्मा की प्राप्तिरूप फल अवश्य मिलता है[2]- यही भाव दिखलाने के लिये यहाँ यह सामान्य बात कही है कि वे लोग सनातन परब्रह्म को प्राप्त होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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