श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
उत्तर- प्रणव (ऊँ) सच्चिदानन्दघन पूर्णब्रह्म परमात्मा का वाचक है[1]; किसी भी उत्तम क्रिया के प्रारम्भ में इसका उच्चारण करना कर्तव्य माना गया है।[2] इसलिये इस प्रकरण में जितने भी यज्ञों का वर्णन है, उन सभी में भगवान् के नाम का सम्बन्ध अवश्य जोड़ देना चाहिये। हाँ, यह बात अवश्य है कि प्रणव के स्थान में श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीशिव आदि जिस नाम में जिसकी रुचि और श्रद्धा हो, उसी नाम का प्रयोग किया जा सकता है। क्योंकि उस परब्रह्म परमात्मा के सभी नामों का फल श्रद्धा के अनुसार लाभप्रद होता है। यहाँ सभी साधनों को यज्ञ का रूप दिया गया है और बिना मन्त्र के यज्ञ को तामस माना गया है[3]; इसलिये भी मन्त्रस्थानीय भगवन्नाम का प्रयोग परमावश्यक है। उपर्युक्त प्राणायामरूप यज्ञों में एक, दो, तीन आदि संख्या के प्रयोग से या चुटकी के प्रयोग से मात्रा आदि का ज्ञान रखा जाने से मन्त्र की कमी रह जाती है; इसलिये वह सात्त्विक यज्ञ नहीं होता। अतः यही समझना चाहिये कि प्राणायामरूप यज्ञ में नाम का जप परमावश्यक है। साथ-साथ इष्ट-देवता का ध्यान भी करते रहना चाहिये। प्रश्न- उपर्युक्त सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- तेईसवें श्लोक में जो यह बात कही गयी थी कि यज्ञ के लिये कर्मों का अनुष्ठान करने वाले पुरुष के समग्र कर्म विलीन हो जाते हैं, वही बात इस कथन से स्पष्ट की गयी है। अभिप्राय यह है कि चौबीसवें श्लोक से लेकर यहाँ तक जिन यज्ञ करने वाले साधक पुरुषों का वर्णन हुआ है, वे सभी ममता, आसक्ति और फलेच्छा से रहित होकर यज्ञार्थ उपर्युक्त साधनों का अनुष्ठान करके उनके द्वारा पूर्वसंचित कर्म संस्कार-रूप समस्त शुभाशुभ कर्मों का नाश कर देने वाले हैं; इसलिये वे यज्ञ के तत्त्व को जानने वाले हैं। जो मनुष्य उपर्युक्त साधनों में से कितने ही साधनों को सकाम भाव से किसी सांसारिक फल की प्राप्ति के लिये करते हैं, वे यद्यपि न करने वालों से बहुत अच्छे हैं, परंतु यज्ञ के तत्त्व को समझकर यज्ञार्थ कर्म करने वाले नहीं हैं, अतएव वे कर्म बन्धन से मुक्त नहीं होते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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