चतुर्थ अध्याय
प्रश्न- सनातन परब्रह्म की प्राप्ति से सगुण ब्रह्म की प्राप्ति मानी जाय या निर्गुण की?
उत्तर- सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म दो नहीं हैं, सच्चिदानन्दघन परमेश्वर ही सगुण ब्रह्म हैं और वे ही निर्गुण ब्रह्म हैं। अपनी भावना और मान्यता के अनुसार साधकों की दृष्टि में ही सगुण और निर्गुण का भेद है, वास्तव में नहीं। सनातन परब्रह्म की प्राप्ति होने के बाद कोई भेद नहीं रहता।
प्रश्न- यहाँ ‘अयज्ञस्य’ पद किस मनुष्य का वाचक है और उसके लिये यह लोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक तो कैसे सुखदायक हो सकता है- इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- जो मनुष्य उपर्युक्त यज्ञों में से इनके सिवा जो और भी अनेक प्रकार के साधनरूप यज्ञ शास्त्रों में वर्णित हैं, उनमें से कोई-सा भी यज्ञ-किसी प्रकार भी नहीं करता, उस मनुष्य-जीवन के कर्तव्य का पालन न करने वाले पुरुष का वाचक यहाँ ‘अयज्ञस्य’ पद है। उसको यह लोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक तो कैसे सुखदायक हो सकता है- इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त साधनों का अधिकार पाकर भी उनमें न लगने के कारण उसको मुक्ति तो मिलती ही नहीं, स्वर्ग भी नहीं मिलता और मुक्ति के द्वाररूप इस मनुष्य-शरीर में भी कभी शान्ति नहीं मिलती; क्योंकि परमार्थ-साधनहीन मनुष्य नित्य-निरन्तर नाना प्रकार की चिन्ताओं की ज्वाला से जला करता है; फिर उसे दूसरी योनियों में तो, जो केवल भोग योनि मात्र हैं और जिनमें सच्चे सुख की प्राप्ति का कोई साधन ही नहीं है, शान्ति मिल ही कैसे सकती है? मनुष्य-शरीर में किये हुए शुभाशुभ कर्मों का ही फल दूसरी योनियों में भोगा जाता है। अतएव जो इस मनुष्य-शरीर में अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, उसे किसी भी योनि में सुख नहीं मिल सकता।
प्रश्न- इस लोक में शास्त्र विहित उत्तम कर्म न करने वालों को शास्त्र विपरीत कर्म करने-वालों को भी स्त्री, पुत्र, धन, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा आदि इष्ट वस्तुओं की प्राप्तिरूप सुख का मिलना तो देखा जाता है; फिर यह कहने का क्या अभिप्राय है कि यज्ञ न करने वाले को यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है?
उत्तर- उपर्युक्त इष्ट वस्तुओं की प्राप्तिरूप सुख का मिलना भी पूर्वकृत शास्त्र विहित शुभ कर्मों का ही फल है’ पाप कर्मों का नहीं। इस सुख को वर्तमान जन्म में किए हुए पाप कर्मों का शुभकर्मों के त्याग का फल कदापि नहीं समझना चाहिये। इसके सिवा, उपर्युक्त सुख वास्तव में सुख भी नहीं है। अतएव भगवान् के कहने का यहाँ यही अभिप्राय है कि साधन रहित मनुष्य को इस मनुष्य-शरीर में भी (जो कि परमानन्द स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति का द्वार है) उसकी मूर्खता के कारण सात्त्विक सुख या सच्चा सुख नहीं मिलता, वरं नाना प्रकार की भोगवासना के कारण निरन्तर शोक और चिन्ताओं के सागर में ही डूबे रहना पड़ता है।
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