श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि कामना का वासस्थान मन है[1]; अतएव बुद्धि के साथ-साथ जब मन परमात्मा में अटल स्थिर हो जाता है तब इन सबका सर्वथा अभाव हो जाता है। इसलिये यह समझना चाहिये कि जब तक साधक के मन में रहने वाली कामनाओं का सर्वथा अभाव नहीं हो जाता, तब तक उसकी बुद्धि स्थिर नहीं है। प्रश्न- आत्मा से आत्मा में ही सन्तुष्ट रहना क्या है? उत्तर- अन्तःकरण में स्थित समस्त कामनाओं का सर्वथा अभाव हो जाने के बाद समस्त दृश्यजगत् से सर्वथा अतीत नित्य, शुद्ध, बुद्ध परमात्मा के यथार्थ स्वरूप को प्रत्यक्ष करके जो उसी में नित्य तृप्त हो जाना है- यही आत्मा से आत्मा में ही सन्तुष्ट रहना है। तीसरे अध्याय के सत्रहवें श्लोक में भी महापुरुष के लक्षणों में आत्मा में ही तृप्ति और आत्मा में ही सन्तुष्ट रहने की बात कही गयी है। प्रश्न- उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि कर्मयोग का साधन करते-करते जब योगी की उपर्युक्त स्थिति हो जाय, तब समझना चाहिये कि उसकी बुद्धि परमात्मा में अटल स्थित हो गयी है अर्थात् वह योगी परमात्मा को प्राप्त हो चुका है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3। 40
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