श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- इससे स्थिरबुद्धि मनुष्य के अन्तःकरण में उद्वेग का सर्वथा अभाव दिखलाया है। अभिप्राय यह है कि जिसकी बुद्धि परमात्मा के स्वरूप में अचल स्थिर हो जाती है, उस परमात्मा को प्राप्त हुए महापुरुष को साधारण दुःखों की तो बात ही क्या है, भारी-से-भारी दुःख भी उस स्थिति से विचलित नहीं कर सकते।[1] शस्त्रों द्वारा शरीर को काटा जाना, अत्यन्त दुःसह सरदी-गरमी, वर्षा और बिजली आदि से होने वाली शारीरिक पीड़ा, अति उत्कट रोगजनित व्यथा, प्रिय से भी प्रिय वस्तु का आकस्मिक वियोग, बिना कारण ही संसार में महान् अपमान एवं तिरस्कार और निन्दादि का हो जाना, इसके सिवा और भी जितने महान् दुःखों के कारण हैं, वे सब एक साथ उपस्थित होकर भी उसके मन में किंचिन्मात्र भी उद्वेग नहीं उत्पन्न कर सकते। इस कारण उसके वचनों में भी सर्वथा उद्वेग का अभाव होता है; यदि लोकसंग्रह के लिये उसके द्वारा शरीर या वाणी से कहीं उद्वेग का भाव दिखलाया जाय तो वह वास्तव में उद्वेग नहीं है। प्रश्न- ‘सुखेषु विगतस्पृहः’ का क्या भाव है? उत्तर- इससे स्थिरबुद्धि मनुष्य के अन्तः करण में स्पृहारूपी दोष का सर्वथा अभाव दिखलाया गया है। अभिप्राय यह है कि वह दुःख और सुख दोनों में सदा ही सम रहता है[2], जिस प्रकार बड़े-से-बड़ा दुःख उसे अपनी स्थिति से विचलित नहीं कर सकता, उसी प्रकार बड़े-से-बड़ा सुख भी उसके अन्तःकरण में किंचिन्मात्र भी स्पृहा का भाव नहीं उत्पन्न कर सकता; इस कारण उसकी वाणी में स्पृहा के दोष का सर्वथा अभाव होता है। यदि लोकसंग्रह के लिये उसके द्वारा शरीर या वाणी से कहीं स्पृहा का भाव दिखलाया जाय तो वह वास्तव में स्पृहा नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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