श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- इस लोक या परलोक के किसी भी पदार्थ के संयोग या वियोग की जो किसी भी निमित्त से किसी भी प्रकार की मन्द या तीव्र कामनाएँ मनुष्य के अन्तःकरण में हुआ करती हैं, उन सबका वाचक यहाँ ‘सर्वान्’ विशेषण के सहित ‘कामान्’ पद है। इनके वासना, स्पृहा, इच्छा और तृष्णा आदि अनेक भेद हैं। इन सबसे सदा के लिये सर्वथा रहित हो जाना ही उनका सर्वथा त्याग कर देना है। प्रश्न- वासना, स्पृहा, इच्छा और तृष्णा में क्या अन्तर है? उत्तर- शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, मान, प्रतिष्ठा आदि अनुकूल पदार्थों के बने रहने की और प्रतिकूल पदार्थों के नष्ट हो जाने की जो रागद्वेषजनित सूक्ष्म कामना है, जिसका स्वरूप विकसित नहीं होता उसे ‘वासना’ कहते हैं। किसी अनुकूल वस्तु के अभाव का बोध होने पर जो चित्त में ऐसा भाव होता है कि अमुक वस्तु की आवश्यकता है, उसके बिना काम नहीं चलेगा- इस अपेक्षारूप कामना का नाम ‘स्पृहा’ है। यह कामना का वासना की अपेक्षा विकसित रूप है। जिस अनुकूल वस्तु का अभाव होता है, उसके मिलने की और प्रतिकूल के विनाश की या न मिलने की प्रकट कामना का नाम ‘इच्छा’ है; यह कामना का पूर्ण विकसित रूप है और स्त्री, पुत्र, धन आदि पदार्थ यथेष्ट प्राप्त रहते हुए भी जो उनके अधिकाधिक बढ़ने की इच्छा है, उसको ‘तृष्णा’ कहते हैं। यह कामना का बहुत स्थूल रूप है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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