श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर: ।
उत्तर- अपने मन, इन्द्रिय और शरीर को उनके द्वारा किये जाने वाले कर्मों को और संसार की समस्त वस्तुओं को भगवान की समझकर उन सबमें ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग कर देना तथा मुझमें कुछ भी करने की शक्ति नहीं है, भगवान ही सब प्रकार की शक्ति प्रदान करके मेरे द्वारा अपने इच्छानुसार समस्त कर्म करवाते है, मैं कुछ भी नहीं करता- ऐसा समझकर भगवान् के आज्ञानुसार उन्हीं के लिये, उन्हीं की प्रेरणा से, जैसे करावें वैसे ही, निमित्तमात्र बनकर समस्त कर्मों को कठपुतली की भाँति करते रहना- यही समस्त कर्मो को मन से भगवान में अर्पण कर देना है। प्रश्न- ‘बुद्धियोगम्’ पद किसका वाचक है और उसका अवलम्बन करना क्या है? उत्तर- सिद्धि और असिद्धि में, सुख और दुःख में, हानि और लाभ में, इसी प्रकार संसार के समस्त पदार्थों में और प्राणियों में जो समबुद्धि है- उसका वाचक ‘बुद्धियोगम्’ पद है। इसलिये जो कुछ भी होता है, सब भगवान की ही इच्छा और इशारे से होता है- ऐसा समझकर समस्त वस्तुओं में समस्त प्राणियों में और समस्त घटनाओं में राग-द्वेष, हर्ष-शोकादि विषम भावों से रहित होकर सदा-सर्वदा समभाव से युक्त रहना ही उपर्युक्त बुद्धियोग का अवलम्बन करना है। प्रश्न- भगवान के परायण होना क्या है? उत्तर- भगवान को ही अपना परम प्राप्य, परम गति, परम हितैषी, परम प्रिय और परमाधार मानना, उनके विधान में सदा ही संतुष्ट रहना और उनकी प्राप्ति के साधनों में तत्पर रहना भगवान के परायण होना है। प्रश्न - निरन्तर भगवान में चित्त वाला होना क्या है? उत्तर- मन-बुद्धि को अटल भाव से भगवान में लगा देना; भगवान के सिवा अन्य किसी में किंचिन्मात्र भी प्रेम का सम्बन्ध न रखकर अनन्य प्रेमपूर्वक निरन्तर भगवान का ही चिन्तन करते रहना; क्षणमात्र के लिये भी भगवान की विस्मृति का असह्य हो जाना; उठते-बैठते, चलते-फिरते, खाते-पीते, सोते-जागते और समस्त कर्म करते समय भी नित्य-निरन्तर मन से भगवान के दर्शन करते रहना- यही निरन्तर भगवान में चित्त वाला होना है। नवें अध्याय के अन्तिम श्लोक में और यहाँ पैंसठवें श्लोक में ‘मन्मना भव’ से भी यही बात कही गयी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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