श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
मच्चित: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
उत्तर- इस वाक्य से भगवान ने यह दिखलाया है कि पूर्व-श्लोक में कहे हुए प्रकार से समस्त कर्म मुझमें अर्पण करके और मेरे परायण होकर निरन्तर मुझमें मन लगा देने के बाद तुम्हें और कुछ भी नहीं करना पड़ेगा, मेरी दया के प्रभाव से अनायास ही तुम्हारे इस लोक और परलोक के समस्त दुःख टल जायँगे, तुम सब प्रकार के दुर्गुण और दुराचारों से रहित होकर सदा के लिये जन्म-मरणरूप महान संकट से मुक्त हो जाओगे और मुझ नित्य आनन्दघन परमेश्वर को प्राप्त कर लोगे। प्रश्न- ‘अथ’ और ‘चेत्’ इन दोनों अव्ययों का क्या भाव है और ‘अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जायगा’- इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ‘अथ’ पक्षान्तर का बोधक है और ‘चेत्’,‘यदि’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इन दोनों अव्ययों के सहित उपर्युक्त वाक्य से भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि तुम मेरे भक्त और प्रिय सखा हो, इस कारण अवश्य ही मेरी आज्ञा का पालन करोगे; तथापि तुम्हें सावधान करने के लिये में बतला देता हूँ कि जिस प्रकार मेरी आज्ञा का पालन करने से महान लाभ होता है, उसी प्रकार उसके त्याग से महते हानि भी होती है। इसलिये यदि तुम अहंकार के वश में होकर अर्थात् अपने को बुद्धिमान या समर्थ समझकर मेरे वचनों को न सुनोगे-मेरी आज्ञा का पालन न करके अपनी मनमानी करोगे तो तुम नष्ट हो जाओगे; फिर तुम्हें इस लोक में या परलोक में कहीं भी वास्तविक सुख और शान्ति नहीं मिलेगी और तुम अपने कर्तव्य से भ्रष्ट होकर वर्तमान स्थिति से गिर जाओगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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