श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
उत्तर- ‘अपि’ अव्यय का प्रयोग करके यहाँ भक्तिप्रधान कर्मयोगी की महिमा की गयी है और कर्मयोग की सुगमता अभिप्राय यह है कि सांख्ययोगी समस्त परिग्रह का और समस्त भोगों का त्याग करके एकान्त देश में निरन्तर परमात्मा के ध्यान का साधन करता हुआ जिस परमात्मा को प्राप्त करता है, भगवदाश्रयी कर्मयोगी स्ववर्णाश्रमोचित समस्त कर्मों को सदा करता हुआ भी उसी परमात्मा को प्राप्त हो जाता है; दोनों के फल में किसी प्रकार का भेद नहीं होता। प्रश्न- ‘शाश्वतम्’ और अव्ययम्’ विशेषणों के सहित ‘पदम्’ पद किसका वाचक है और भक्तिप्रधान कर्मयोगी का भगवान की कृपा से उसको प्राप्त हो जाना क्या है? उत्तर- जो सदा से है और सदा रहता है, जिसका कभी आभाव नहीं होता- उस सच्चिदानन्दघन, पूर्णब्रह्म, सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार परमेश्वर का वाचक यहाँ उपर्युक्त विशेषणों के सहित ‘पदम्’ पद है। वही परमप्राप्य है, यह भाव दिखलाने के लिये उसे ‘पद’ के नाम से कहा गया है। पैंतालीसवें श्लोक में जिसे ‘संसिद्धि’ की प्राप्ति, छियालीसवें में ‘सिद्धि’ की प्राप्ति और पचपनवें श्लोक में ‘माम्’ पदवाच्य परमेश्वर की प्राप्ति कहा गया है, उसी को यहाँ ‘शाश्वतम्’ और ‘अव्ययम्’ विशेषणों के सहित ‘पदम्’ पदवाच्य भगवान की प्राप्ति कहा गया है। अभिप्राय यह है कि भिन्न-भिन्न नामों से एक ही तत्त्व का वर्णन किया गया है। उपर्युक्त भक्तिप्रधान कर्मयोगी के भाव से भावित और प्रसन्न होकर, उस पर अतिशय अनुग्रह करके भगवान स्वयं ही उसे परा भक्तिरूप बुद्धियोग प्रदान कर देते हैं[1]; उस बुद्धियोग के द्वारा भगवान के यथार्थ स्वरूप को जानकर जो उस भक्त का भगवान में तन्मय हो जाना है- सच्चिदानन्दघन परमेश्वर में प्रविष्ट हो जाना है- यही उसका उपर्युक्त परमपद को प्राप्त हो जाना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10। 10
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