भागवत सुधा -करपात्री महाराजवे स्वयं कहते हैं- वरनाश्रम निज निज धरम निरत वेद पथ लोग । वे कभी भी यह बरदाश्त नहीं कर सकते कि ब्राह्मण लड़के का यज्ञोपवीत संस्कार न करावैं, उन्हें गायत्री मन्त्र का उपदेश ही न करो, वेदाध्ययन ही न कराओ। यदि वह वेदाध्ययन करेगा तो सन्ध्यावन्दन भी करेगा, सूर्यार्ध्य भी देगा। फिर उसको अग्निहोत्र करने में क्या आपत्ति है? यदि कहो- यह सब कठिन है, तो ठीक नहीं। गीता का भी यही कहना है। तुलसीदास ने कभी अपने मस्तिष्क का फितूर नहीं बाँटा। जो वेदों में शास्त्रों में है, उसी को उन्होंने कहा। गीता का कहना है- नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया । (इस प्रकार के मेरे स्वरूप का दर्शन जैसा कि तुमने किया है, न वेदाध्ययन से, न तप से, न दान से तथा न यज्ञ से ही हो सकता है।।) भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवं विधोअर्जुन । (हे अर्जुन! मेरे इस प्रकार के स्वरूप को अनन्य भक्ति से मुमुक्षु पुरुष यथार्थतः जान सकते हैं, देख सकते हैं तथा मेरे स्वरूप में अवस्थित भी रह सकते हैं।।) यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोसि ददासि यत् । (हे कुन्तीपुत्र! तू जो कुछ भी स्वतः प्राप्त कर्म करता है, जो भोजन करता है, जो कुछ श्रोत या स्मार्त्त यज्ञ रूप हवन करता है, जो कुछ सुवर्ण, अन्न घृतादि वस्तु ब्राह्मणादि सत्पात्रों को दान देता है और जो कुछ तप का आचरण करता है वह सब मुझे समर्पित कर।।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (रामचरित मानस 7/20)
- ↑ (रामचरित मानस 2/129/7)
- ↑ (भगवद् गीता 11/53)
- ↑ (भगवद् गीता 11/15)
- ↑ (भगवद् गीता 9/27)
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