भागवत सुधा -करपात्री महाराजभावुकों के भावना राज्य वाले शून्यः निकुन्ज में ही प्रियतम संकेतित समय में पधारते हैं, किसी अन्य के सानिध्य में नहीं; वैसे ही वेदान्तियों के यहाँ भी भगवान से व्यतिरिक्त जो दृश्य पदार्थ हैं उनके संसर्ग से शून्य निर्वृतिक और निर्मल अन्तःकरण में ही ‘तत्पदार्थ’ का प्राकट्य होता है। जैसे सर्व-व्यापारों से रहित होकर पूर्ण प्रतीक्षा ही प्रियतम के संगम का आसाधारण हेतु है; वैसे ही वेदान्तियों के यहाँ भी पूर्ण प्रतीक्षा अर्थात कायिकी, मानसी आदि सर्व चेष्टाओं का निरोध होने पर ही ‘त्वं पदार्थ’ को ‘तत्पदार्थ’ का संगम प्राप्त होता है। सर्वदृश्य-संसर्ग-शून्य निर्वृत्तिक निर्मल अन्तःकरण रूप निकुंज में पूर्ण प्रतीक्षा- परायण ब्रजांगना-भावापन्न ‘त्वं’ पदार्थ श्रीकृष्ण स्वरूप ‘तत्पदार्थ’ के साथ यथेष्टतादात्म्य सम्बन्ध प्राप्त करता है। नाम, रस, धाम और श्री राधा-कृष्ण के उक्त रस-रहस्यमय दिव्य निरूपण के साथ ही माहात्म्य-प्रकाश, मंडल श्लोक-व्याख्या, शुकागमन-शुक-परीक्षित- संवाद, प्रह्लाद-बलि- चरित, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम भद्र और लीलापुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र की लीलाओं का मार्मिक दिग्दर्शन प्रस्तुत ‘भागवत-सुधा’ में मनोरम राति से श्री स्वामी जी के श्री मुखारविन्द से अभिव्यक्त हुआ है। धर्म और ब्रह्म के मर्मज्ञ श्री स्वामी जी ने भक्तिसुधा, भक्तिसाण्वि और इस भागवत-सुधा के माध्यम से लोकोत्तर अमलात्मा- मुनीन्द्र - श्रीमत्परमहंसों के जिस जीवन का अनुपम रीति से चित्रण किया है, उसके स्वयं मूर्तिमान स्वरूप ही थे। |
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