भागवत सुधा -करपात्री महाराजषष्ठ-पुष्प 8. श्री जीयशस्विनि! इस तरह बहुत से प्रहारों द्वारा इन सबको पीटकर क्रूरतापूर्ण बातें करने वाली इन अप्रिकारिणी राक्षसियों को पटक-पटक कर मार डालूँ। जिन-जिन भयानक रूपवाली राक्षसियों ने पहले आपको डाँट बतायी है, उन सबको मैं अभी मौत के घट उतार दूँगा। इसके लिये आप केवल वर[1] माँ ने कहा- ‘वत्स! ये रावण की नौकरानी थी, परवश होकर वैसा करती थीं- आज्ञप्ता राक्षसेनेह राक्षस्यस्तर्जयन्ति माम्। (पवनकुमार! उस राक्षस रावण की आज्ञा से ही ये मुझे धमकाया करती थीं। जब से वह मारा गया है, तब से ये बेचारी मुझे कुछ नहीं कहतीं। इन्होंने डराना धमकाना छोड़ दिया है।) पापानां वा शुभानां वा वधार्हाणामथापि वा। (श्रेष्ठ पुरुष चाहिये कि कोई पापी हो या पुण्यात्मा अथवा वे वध के योग्य अपराध करने वाले ही क्यों न हों, उन सब पर दया करें; क्योंकि ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है, जिससे कभी अपराध होता ही न हो।) अर्थात पाप हो, अशुभ हो, बधार्ह[4] भी हो तो भी आर्य-पुरुष को उन पर करुणा करनी चाहिये। दुनियाँ में कोई ऐसा है जिससे अपराध न बना हो? दुनियाँ में कोई ऐसा पौधा है, जिसे वायु का स्पर्श नहीं हुआ! कोई प्राणी ऐसा है जिससे कोई अपराध नहीं बना? इस तरह माँ ने उन राक्षसियों को बचा लिया। रामानुजसम्प्रदाय के एक बड़े भक्त कवि महापुरुष कहते हैं- मातर्मैथिलि राक्षसीस्त्वयि तदैवार्द्रापराधास्त्वयि (हे मातः! आपने ताजा अपराध करने वाली राक्षसियों की हनुमान से रक्षा करके श्रीराम- गोष्ठी छोटी कर दी, क्योंकि उन्होंने तो जयन्त और विभीषण की रक्षा शरणागत होने पर की थी, परन्तु आपने तो शरण होने की अपेक्षा बिना ही उनका रक्षण किया।) नारद देखा बिकल जयन्ता। लागि दया कोमल चित संता।। नारद ने कहा- ‘‘अरे! जा, तू राम की शरण में ही जा। समय का अपव्यय मत कर, इधर-उधर मत भटक।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आज्ञा दे दें।
- ↑ बाल्मीकि महाराज युद्धकाण्ड 113.42
- ↑ बाल्मीकि रामायण युद्ध काण्ड 113.45
- ↑ बध के योग्य
- ↑ गुणरत्नकोश
- ↑ रामचरितमानस 3.1.9-13
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