भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 214

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

षष्ठ-पुष्प

8. श्री जी

यशस्विनि! इस तरह बहुत से प्रहारों द्वारा इन सबको पीटकर क्रूरतापूर्ण बातें करने वाली इन अप्रिकारिणी राक्षसियों को पटक-पटक कर मार डालूँ। जिन-जिन भयानक रूपवाली राक्षसियों ने पहले आपको डाँट बतायी है, उन सबको मैं अभी मौत के घट उतार दूँगा। इसके लिये आप केवल वर[1] माँ ने कहा- ‘वत्स! ये रावण की नौकरानी थी, परवश होकर वैसा करती थीं-

आज्ञप्ता राक्षसेनेह राक्षस्यस्तर्जयन्ति माम्।
हते तस्मिन् न कुर्वन्ति तर्जनं मारुतात्मज।।[2]

(पवनकुमार! उस राक्षस रावण की आज्ञा से ही ये मुझे धमकाया करती थीं। जब से वह मारा गया है, तब से ये बेचारी मुझे कुछ नहीं कहतीं। इन्होंने डराना धमकाना छोड़ दिया है।)

पापानां वा शुभानां वा वधार्हाणामथापि वा।
कार्य कारुण्यमार्येण न कश्चिन्नापराध्यति।।[3]

(श्रेष्ठ पुरुष चाहिये कि कोई पापी हो या पुण्यात्मा अथवा वे वध के योग्य अपराध करने वाले ही क्यों न हों, उन सब पर दया करें; क्योंकि ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है, जिससे कभी अपराध होता ही न हो।) अर्थात पाप हो, अशुभ हो, बधार्ह[4] भी हो तो भी आर्य-पुरुष को उन पर करुणा करनी चाहिये। दुनियाँ में कोई ऐसा है जिससे अपराध न बना हो? दुनियाँ में कोई ऐसा पौधा है, जिसे वायु का स्पर्श नहीं हुआ! कोई प्राणी ऐसा है जिससे कोई अपराध नहीं बना? इस तरह माँ ने उन राक्षसियों को बचा लिया। रामानुजसम्प्रदाय के एक बड़े भक्त कवि महापुरुष कहते हैं-

मातर्मैथिलि राक्षसीस्त्वयि तदैवार्द्रापराधास्त्वयि
रक्षन्त्या पवनात्मजाल्लघुतरा रामस्य गोष्ठी कृता।
काकं तंज विभीषणं शरणमित्युक्तिक्षमौ रक्षतः
सा नः सान्द्रमहागसः सुखयतु क्षान्तिस्ववाकस्मिकी।।[5]

(हे मातः! आपने ताजा अपराध करने वाली राक्षसियों की हनुमान से रक्षा करके श्रीराम- गोष्ठी छोटी कर दी, क्योंकि उन्होंने तो जयन्त और विभीषण की रक्षा शरणागत होने पर की थी, परन्तु आपने तो शरण होने की अपेक्षा बिना ही उनका रक्षण किया।)
मातर्मैथिलि! सौ-दो-सौ वर्ष का नहीं, जिनका अपराध बिल्कुल ताजा था उन आर्द्रापराधा राक्षसियों की पवनात्मज से रक्षा करती हुई आपने राम की गोष्ठी को लघु बना दिया। प्रश्न है- ‘क्यों, राम भी तो रक्षा करते हैं शरणागत की?’ उत्तर है- ‘हाँ करते तो हैं, पर शरणागत हो तब। कौवा जयन्त भगवान की शरण हुआ तब उसकी रक्षा हुई। नहीं तो भागता-भागता लोक-लोकान्तर में भटका पर कहीं विश्राम नहीं-

नारद देखा बिकल जयन्ता। लागि दया कोमल चित संता।।
पठवा तुरत राम पहिं ताही। कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही।।
आतुर सभय गहेसि पद जाई। त्राहि त्राहि दयालु रघुराई।।
निज कृत कर्म जनित फल पायउँ। अब प्रभु पाहि शरण तकि आयउँ।।[6]

नारद ने कहा- ‘‘अरे! जा, तू राम की शरण में ही जा। समय का अपव्यय मत कर, इधर-उधर मत भटक।’’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आज्ञा दे दें।
  2. बाल्मीकि महाराज युद्धकाण्ड 113.42
  3. बाल्मीकि रामायण युद्ध काण्ड 113.45
  4. बध के योग्य
  5. गुणरत्नकोश
  6. रामचरितमानस 3.1.9-13

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क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
12. भगवत्तत्व का अनुसंधान- छान्दोग्य शैली में 55
13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
17. ईश्वर-सिद्धि 64
18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
2. परम धर्म 111
3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
4. ‘तत्त्व’ की तात्त्विक परिभाषा 123
चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
3. भगवदाराधन की विधि 143
4. ‘तथा परमहंसानां’ के साथ ‘परित्राणाय साधूनां’ की संगति 154
पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
2. अप्रमत्त के लिये अति सुगम भगवत्प्राप्ति 174
3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
10. अनाघ्रात अनपहत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’ 242
11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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