भागवत सुधा -करपात्री महाराजषष्ठ-पुष्प 4. शरणागतिसारे दृश्य प्रपंच से विरक्त होरक अर्थात भगवद्भिन्न सारे पदार्थों से विमुख निराश होकर एकमात्र सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान् प्रभु को ही प्राप्त होना ‘प्रपत्ति’ है। भवन्तं सर्वभूतानां शरण्यं शरणं गतः। (हे श्रीरामभद्र! आप समस्त प्राणियों को शरण देने वाले हैं, इसलिये मैंने आपकी शरण ली है। अपने सभी मित्र, धन और लंकापुरी को छोड़कर आया हूँ।) जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा। ऐसी भगवत्प्रपत्ति बहुत ऊँची है। अच्छा यह न बन सके तो, ‘तवास्मीति चयायते’ यह याच्णा[3] करो कि हे प्रभो! हमें स्वीकार कर लीजिये।’ भक्तों ने कहा- ‘महाराज! आपने यह प्रतिज्ञा अकेले में नहीं की है, तीर्थ में की हैं। किस तीर्थ में? समुद्र में। सारे तीर्थ उसी में तो जाते हैं। गंगा भी वहीं जाय, यमुना भी वहीं जाय। तीर्थों का अधिष्ठान है समुद्र। उनके किनारे आपने प्रतिज्ञा की। अकेले नहीं थे आप, ऋषि थे, महर्षि थे, बन्दर भालु थे, इन सबके मध्य आपने प्रतिज्ञा की। इसलिये मुकर नहीं सकते महाराज! और महाराज श्रीरामचन्द्र मुकरें भी कैसे? तुलसीदास जी महाराज के राम तो कहते हैं- शरणागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि। ‘‘जो शरणागत को त्याग देता है अपना अनहित-अहित समझकर, वह नर पामर है, पापमय है, उसके दर्शन में पाप लगता है।’’ ऐसे प्रभु कभी मुकर सकते हैं? कभी नहीं। श्रीरामभद्र ने वाल्मीकि- रामायण में कपोत का दृष्टान्त दिया है। कपोत के शरण कोई व्याध आया। शरण माने घर। अर्थात जिस पेड़ पर कपोत रहता था, उस वृक्ष के नीचे कोई व्याध भी ऐसा था जिसने कपोत की कपोती को अपने जाल में फँसा रक्खा था। शत्रु-सरीखा व्याध उसके शरण आया। जाड़े में वह ठिठुर रहा था। कपोत ने अतिथि का सत्कार करना चाहा, उसके प्राणों को बचाना चाहा। कहीं से जलती हुई लकड़ी ले आया। इधर-उधर से लकड़ियों को बटोर कर उस पर रखा। अग्नि प्रज्वलित कर अतिथि को शीत से बचा लिया। फिर कपोत ने सोचा यह अवश्य ही भूखा है, स्वयं ही अग्नि में कूद पड़ा-‘लो भैया, इस अग्नि में मुझे भून करके भूख मिटालो’ श्रीराम ने यह दृष्टान्त दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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