भागवत सुधा -करपात्री महाराजएतावान् सांख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया। (मुनष्य जन्म का यही इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे हो- ज्ञान से, भक्ति से अथवा अपने धर्म की निष्ठा से जीवन को ऐसा बना लिया जाय कि मृत्यु के समय भगवान की स्मृति अवश्य बनी रहे।) ‘‘ननु वक्तृविशेषनिःस्पृहा गुणगृह्यावचने विपश्चितः।’’[3] लौकिक विषयों में यद्यपि प्रायः ‘वक्तृविशेष निस्पृहता’ होती है, ‘बालादपि सुभाषितं ग्राह्यम्’, सुभाषित यदि बालक भी बोल रहा हो, गँवार भी बोल रहा हो तो ग्रहण करना चाहिए’ यही नीति काम करती है, परन्तु वेदान्त में वक्तृविशेषस्पृहा होनी चाहिये। कौन बोलता है? कोई श्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ बोल रहा है? इसलिये- परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन। (कर्म द्वारा प्राप्त हुए लोकों की परीक्षा करके ब्राह्मण निर्वेद-वैराग्य को प्राप्त हो जाय, क्योंकि संसार अकृत-नित्य पदार्थ नहीं है और कृत से हमें क्या प्रयोजन है? अतः उस नित्य-वस्तु का साक्षात-ज्ञान प्राप्त करने के लिये तो हाथ में समिधा लेकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास ही जाना चाहिये।) आचार्यवान् पुरुषो वेद’[5] अर्थात जो शास्त्रों का संकलन करके वेद-वेदांगों का अध्ययन करके उसका शास्त्रार्थसार संग्रहीत करे और अन्यों में भी व्यवस्थापन कर, स्वयं भी वैसा ही आचरण करे, उसे आचार्य कहते हैं। श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः श्रृण्वन्तोअपि बहवो यं न विद्युः। ( जो बहुतों को सुनने के लिये भी प्राप्त होने योग्य नहीं है, जिसे बहुत से सनुकर भी नहीं समझते, उस आत्मतत्त्व का निरूपण करने वाला भी आश्चर्य रूप है, उसको प्राप्त करने वाला भी कोई कुशल होता है तथा कुशल आचार्य द्वारा उपदेश किया हुआ ज्ञाता भी आश्चर्य रूप है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत 2.1.6
- ↑ पुरुष
- ↑ किरातार्जुनीयम् 2/5
- ↑ मुण्डकोपनिषद् 1.12
- ↑ छान्दोग्योपनिषद् 6.14.2
- ↑ लिंगपुराण अ0 10 श्लोक0 16
- ↑ कठोपनिषद् 1.2.7-8
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