भागवत सुधा -करपात्री महाराज
सोह न राम प्रेम बिनु ग्यानू। करनधार बिनु जिमि जलजानू।।[1]
राम -प्रेम के बिना ज्ञान की शोभा नहीं। श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द मदन मोहन के पादारविन्द में प्रीति नहीं तो फिर वह ज्ञान शोभित नहीं। इसलिए भक्तियोग का विधान करके परमहंस को श्रीपरमहंस बनाने के लिए भगवान को अवतरित होना ही चाहिए। भगवान के सत्य-संकल्प होने से ही यह काम नहीं सकता। भक्ति के लिए अपेक्षित भजनीय- जैसे कर्म के स्वरूप द्रव्य और देवता हैं, वैसे ही भक्ति का स्वरूप भजनीय है। भजनीय नहीं होगा तो भक्ति क्या होगी? इसलिये भजनीय चाहिये? निराकार-निर्विकार तो उनका स्वरूप ही है, उसका भजन क्या होगा? फिर भक्ति में थोड़ा सा-द्वैत चाहिए। एक भक्त चाहिये एक भजनीय। भजनीय के बिना भक्ति नहीं हो सकती। प्रेम लक्षणा भक्ति का आलम्बन कोई अत्यन्त चित्ताकर्षक और परम अभिलषित तत्त्व ही हो सकता है। जो महामुनीश्वर प्रकृति-प्राकृतप्रपंचातीत परमतत्त्व में परिनिष्ठित हैं- उनके मन का आकर्षण भगवान के सिवा प्राकृत पदार्थों में तो हो नहीं सकता। अतः इस बात की आवश्यकता होती है कि उनके परमाराध्य भगवान ही अचिन्त्य एवं अनन्त सौन्दर्य माधुर्यमयी मंगलमूर्ति में अवतीर्ण होकर उन्हें भजनीय रूप से अपना स्वरूप समर्पण कर भक्तियोग का सम्पादन करें, क्योंकि जो कार्य पूर्ण परब्रह्म परमात्मा के अवतीर्ण हुए बिना सम्पन्न न हो सकता हो, जिसके सम्पादन में उनकी सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता कुण्ठित हो जाय, उसी के लिए उनका अवतीर्ण होना सार्थक हो सकता है।
आत्मारामश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः।।[2]
(जो आत्माराम हैं, महामुनीन्द्र हैं, निर्ग्रन्थ हैं, वे लोग भी भगवान में अहैतु की भक्ति करते हैं क्योंकि भगवान्= के गुण ही ऐसे मधुर हैं, जो अमलात्मा परमहंस महामनुनीन्द्रों को भी अपनी ओर खींच लेते हैं।)
‘न हि प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोअपि प्रवर्तने।’ बिना प्रयोजन के किसी मन्द की भी प्रवृत्ति नहीं होती। फिर अमलात्मा मुनीन्द्र परमहंसों की भगवद्भक्ति में क्यों प्रवृत्ति होती है? इसी का उत्तर है- ‘इत्थं भूतगुणों हरिः’ भगवान् का गुण ही ऐसा है। आत्मारामचित्ताकर्षण गुण के कारण ही ब्रह्मविद्वरिष्ठ भी भगवान् की ओर आकृष्ट होते हैं। जैसे जितना शुद्ध निर्मल लोहा होता है, वह उतना ही चुम्बक के द्वारा आकृष्ट होता है, जैसे जितना शुद्ध निर्मल लोहा होता है, वह उतना ही चुम्बक के द्वारा आकृष्ट होता है, वैसे ही जितना निर्मल निष्कलंक परम पवित्र अमलात्मा परमहंस होता है, वह उतना ही भगवान के द्वारा आकृष्ट होता है।
एक दृष्टि और है-
पराश्चि खानि व्यतृणत् स्व्यंभूस्तस्मात्पराड़्पश्यति नान्तरात्मन्।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्त्वमिच्छन्।।[3]
‘स्वयम्भू परमात्मा ने इन्द्रियों को बहिर्मुख बनाया।’ यदि केवल इन्द्रियों की रचना अभीष्ट हो तो ‘व्यरचयत्’ कह देते।
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