भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 151

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

सोह न राम प्रेम बिनु ग्यानू। करनधार बिनु जिमि जलजानू।।[1]
राम -प्रेम के बिना ज्ञान की शोभा नहीं। श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द मदन मोहन के पादारविन्द में प्रीति नहीं तो फिर वह ज्ञान शोभित नहीं। इसलिए भक्तियोग का विधान करके परमहंस को श्रीपरमहंस बनाने के लिए भगवान को अवतरित होना ही चाहिए। भगवान के सत्य-संकल्प होने से ही यह काम नहीं सकता। भक्ति के लिए अपेक्षित भजनीय- जैसे कर्म के स्वरूप द्रव्य और देवता हैं, वैसे ही भक्ति का स्वरूप भजनीय है। भजनीय नहीं होगा तो भक्ति क्या होगी? इसलिये भजनीय चाहिये? निराकार-निर्विकार तो उनका स्वरूप ही है, उसका भजन क्या होगा? फिर भक्ति में थोड़ा सा-द्वैत चाहिए। एक भक्त चाहिये एक भजनीय। भजनीय के बिना भक्ति नहीं हो सकती। प्रेम लक्षणा भक्ति का आलम्बन कोई अत्यन्त चित्ताकर्षक और परम अभिलषित तत्त्व ही हो सकता है। जो महामुनीश्वर प्रकृति-प्राकृतप्रपंचातीत परमतत्त्व में परिनिष्ठित हैं- उनके मन का आकर्षण भगवान के सिवा प्राकृत पदार्थों में तो हो नहीं सकता। अतः इस बात की आवश्यकता होती है कि उनके परमाराध्य भगवान ही अचिन्त्य एवं अनन्त सौन्दर्य माधुर्यमयी मंगलमूर्ति में अवतीर्ण होकर उन्हें भजनीय रूप से अपना स्वरूप समर्पण कर भक्तियोग का सम्पादन करें, क्योंकि जो कार्य पूर्ण परब्रह्म परमात्मा के अवतीर्ण हुए बिना सम्पन्न न हो सकता हो, जिसके सम्पादन में उनकी सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता कुण्ठित हो जाय, उसी के लिए उनका अवतीर्ण होना सार्थक हो सकता है।

आत्मारामश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः।।[2]

(जो आत्माराम हैं, महामुनीन्द्र हैं, निर्ग्रन्थ हैं, वे लोग भी भगवान में अहैतु की भक्ति करते हैं क्योंकि भगवान्= के गुण ही ऐसे मधुर हैं, जो अमलात्मा परमहंस महामनुनीन्द्रों को भी अपनी ओर खींच लेते हैं।)
‘न हि प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोअपि प्रवर्तने।’ बिना प्रयोजन के किसी मन्द की भी प्रवृत्ति नहीं होती। फिर अमलात्मा मुनीन्द्र परमहंसों की भगवद्भक्ति में क्यों प्रवृत्ति होती है? इसी का उत्तर है- ‘इत्थं भूतगुणों हरिः’ भगवान् का गुण ही ऐसा है। आत्मारामचित्ताकर्षण गुण के कारण ही ब्रह्मविद्वरिष्ठ भी भगवान् की ओर आकृष्ट होते हैं। जैसे जितना शुद्ध निर्मल लोहा होता है, वह उतना ही चुम्बक के द्वारा आकृष्ट होता है, जैसे जितना शुद्ध निर्मल लोहा होता है, वह उतना ही चुम्बक के द्वारा आकृष्ट होता है, वैसे ही जितना निर्मल निष्कलंक परम पवित्र अमलात्मा परमहंस होता है, वह उतना ही भगवान के द्वारा आकृष्ट होता है। एक दृष्टि और है-

पराश्चि खानि व्यतृणत् स्व्यंभूस्तस्मात्पराड़्पश्यति नान्तरात्मन्।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्त्वमिच्छन्।।[3]

‘स्वयम्भू परमात्मा ने इन्द्रियों को बहिर्मुख बनाया।’ यदि केवल इन्द्रियों की रचना अभीष्ट हो तो ‘व्यरचयत्’ कह देते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रामचरितमानस 2/276/5
  2. भागवत 1/7/10
  3. कठोपनिषद् 2/4/1

संबंधित लेख

भागवत सुधा -करपात्री महाराज
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
12. भगवत्तत्व का अनुसंधान- छान्दोग्य शैली में 55
13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
17. ईश्वर-सिद्धि 64
18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
2. परम धर्म 111
3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
4. ‘तत्त्व’ की तात्त्विक परिभाषा 123
चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
3. भगवदाराधन की विधि 143
4. ‘तथा परमहंसानां’ के साथ ‘परित्राणाय साधूनां’ की संगति 154
पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
2. अप्रमत्त के लिये अति सुगम भगवत्प्राप्ति 174
3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
10. अनाघ्रात अनपहत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’ 242
11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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