भागवत सुधा -करपात्री महाराजभक्तवत्सल भगवान अपनी प्रतिज्ञा को भूल जाते है। अर्जुन से श्रीभगवान् ने पहले ही कह रखा था- कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।[1] ‘अर्जुन! तूँ प्रतिज्ञा कर कि वासुदेव का भक्त कभी नष्ट नहीं होता।’ अर्जुन बोले-‘‘आप ही क्यों नहीं प्रतिज्ञा करते, हमसे कराते हो?’ भगवान बोले- ‘हमारी प्रतिज्ञा अभी गड़बड़ होने वाली है। इसलिए हमारी प्रतिज्ञा पर कोई विश्वास नहीं है। पर भक्त की प्रतिज्ञा कभी गड़बड़ नहीं होगी। इसलिए तू प्रतिज्ञा कर।’ यह सब काण्ड हुआ। अन्त में भगवान् विदा होने लगे। कुन्ती माता ने स्तुति किया। कुन्ती माता ने वरदान माँगा- ‘‘अशरणशरण अकारणकरुण करुणावरुणालय हम को तो विपत्ति का वरदान दो, विपत्ति दो। क्यों कि हम सम्पत्ति में तो आपको भूलती हैं और विपत्ति में आपका स्मरण करती हैं। विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो। (जगद्गुरो। हमारे जीवन में सर्वदा पद-पद पर विपत्तियाँ आती रहें, क्योंकि विपत्तियों में ही निश्चित रूप से आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके दर्शन हो जाने पर फिर जन्म-मृत्यु की प्राप्ति नहीं होती।) कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तब सुमिरन भजन न होई।।[3] ठीक ही है- विपदो नैव विपदः सम्पदो नैव सम्पदः। दुनियाँ की विपत्ति कोई विपत्ति नहीं है। दुनियाँ की सम्पत्ति कोई सम्पत्ति नहीं है। भगवान का विस्मरण ही विपत्ति है। भगवान का स्मरण ही सर्वात्कृष्ट सम्पत्ति है। यह समझ करके महापुरुषों ने विपत्ति का वरदान माँगा है। दुनियाँ में कोई दूसरा दृष्टान्त नहीं है, जिसने वरदान माँगा हो विपत्ति का। एकमात्र कुन्ती का यह दृष्टान्त है जिसने वरदान माँगा विपत्ति का। कुन्ती बड़ी तत्त्वविदुषी है। वह कहती है- आपका आविर्भाव क्यों होता है? तथा परमहंसाना मुनीनाममलात्मनाम्। (भगवन्! जो अमलात्मा परमहंस मुनि हैं, उनकी भक्ति योग का विधान करने के लिए आपका अवतार होता है; हम स्त्रियाँ इस रहस्य को कैसे समझ सकती हैं।’) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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