भागवत सुधा -करपात्री महाराजजिस तरह पानी में रहता हुआ कमल-पत्र निर्लेप रहता है, उसी तरह जीव के पास रहता हुआ भी भगवान निर्लेप है। युक्ति भी हैं- यदि जीवों के दुःख से उसको दुःख हो तब तो परमात्मा को सबसे ज्यादा दुःख हो। जीव तो केवल अपने दुःख से उसको दुःख हो तब तो परमात्मा को सबसे ज्यादा दुःख हो। जीव तो केवल अपने दुःख से ही दुःखी हो और परमात्मा अनन्त ब्रह्माण्ड के अनन्त-अनन्त प्राणियों से सम्बन्धित होकर अनन्त-अनन्त दुःखों से दुःखी हों, तब तो बड़ा उपद्रव खड़ा हो जाय। इसलिए ‘असंगों न हि सज्जते’[1]यह मानना ही उचित है। ‘दीपक’ ने, चोर आया तो चोर को प्रकाशित कर दिया, घर का मालिक आया तो घर के मालिक को भी प्रकाशित कर दिया। भगवान शंकराचार्य ने एक जगह निर्णय-ब्रह्म की स्तुति की है- उदासीनः स्तब्धः सततमगुणः संगरहितो ‘‘हे देव! आप उदासीन, अनमन स्वभाव, कूटस्य, निर्गुण, संग रहित हमारे तात-पिता श्री हैं। फिर भी मेरी क्या गति है? देव! यदि आप हम पर निष्प्रयोजन स्नेह नहीं करते तो भी हमारा विमल हृदय आपका भवन है, वहाँ आप निवास तो कीजिये।’’ हे निर्गुण दादा जी! आप तो उदासीन हो। लड़का चाहे जिये चाहे मरे, उदासीन से क्या मतलब। गुण कहाँ आप में, आप तो निर्गुण हो। संग ही नहीं आप में। कहाँ का बेटा, कहाँ की बेटी। ऐसा जिसका तात है, उस पुत्र की क्या गति होगी? जिसका तात असंग हो, उदासीन हो, उदासीन हो, स्तब्ध हो, अगुण हो, उसके बेटे की क्या गति होगी? अच्छा कुछ नहीं करते तो कम-से-कम हृदय में निवास तो करो, वहाँ तो बैठे रहो। तुलसीदास जी कहते हैं- मैं केहि कहौं बिपति अति भारी। श्रीरघुवीर धीर हितकारी।।1।। हम तो दुःख भोगने के आदी हैं। जन्म-जन्मान्तर, कल्प-कल्पान्तर में न जाने कितना दुःख भोग चुके हैं और भोग लेंगे, कोई बात नहीं; परन्तु चिन्ता यह है कि आपका अपयश न हो। किन्तु हमारी तो दुर्दशा होती रही है और अनन्त काल तक हो सकती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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