भागवत सुधा -करपात्री महाराजरमा विलासु रामअनुरागी। अनन्त-अनन्त ऐश्वर्य हो, दिव्य विमान हो, दिव्य नन्दन वन हो, कल्पवृक्ष हो, चिन्तामणि हो, कामधेनु हो, अनन्त-अनन्त सुख-भोग-सामग्री हो उनकी ओर ऐसी दृष्टि हो जैसे वमन। मधुर, मनोहर पक्वान्न खाकर वमन हो गया हो उसे देखने की बुद्धि नहीं होती। ठीक इसी प्रकार संसार को देखने की जिसकी बुद्धि नहीं होती वह वैराग्य सम्पन्न है। दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्।[2] देखे और सुने हुए विषयों में सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की जो वशीकार नामक अवस्था है वह वैराग्य है।।) तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम्।[3] पुरुष के ज्ञान से जो प्रकृति के गुणों में तृष्णा का सर्वथा अभाव हो जाना है, वह पर वैराग्य है।) प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव। हे पाण्डव! गुणातीत सत्त्वगुण के कार्य प्रकाश एवं रजोगुण के कार्य प्रवृत्ति और तमोगुण के कार्य मोह उपलब्ध होने पर न द्वेष करता है और न उनकी निवृत्ति होने पर उनको चाहता है।।) तावत् कर्माणि कुर्वीत न विविद्येत यावता। तभी तक कर्म कराना चाहिए, जब तक कर्ममय जगत और उससे प्राप्त होने वाले स्वार्गादि सुखों से वैराग्य न हो जाय अथवा जब तक मेरी लीला-कथा के श्रवण कीर्तन में श्रद्धा न हो जाय।।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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