भागवत सुधा -करपात्री महाराजसखि! ऊँचे खानदान में जन्म हुआ है। कहीं ऊँचे-नीचे पैर पड़े तो कुल को कलंक लग जाता है। इसलिए- इत मत निकसै चैथ को चन्दा सचमुच में प्राणी बड़ा दुर्मर होता है। मरना बड़ा कठिन है। मरना चाहता है, पर मन नहीं पाता। इस हृदय की विचित्र व्यथा, विवशता वैवश्य को ही प्रेमी लोग प्रेम कहते हैं। प्रेम क्या है, मधुर वैवश्य। जो मधुर विवशता है, वही प्रेम है। विवशता हो पर मीठी। सर्व परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्। आम तौर पर ‘परवशता दुःख है। आत्मवशता सुख है। परन्तु यहाँ विवशता मधुर है।’ इस तरह इन श्री राधाकृष्ण को आह्लादित करने वाले शुक ही श्रीमत परमहंस शुक हैं। श्री शुकदेव जी श्री राधारानी के परम कृपापात्र हैं। उनके मुखारविन्द से, हृदय से, आविर्भूत दिव्य मधुर रसमय शब्दावलियों का रसास्वादन करने वाले हैं। उनके मुखारविन्द से सुनकर श्रीकृष्ण के मधुर मनोहर मंगलमय नाम का पाठ करने वाले हैं। श्रीकृष्ण भगवान के भी परम प्रिय हैं। ऐसे शुकदेव जी महाराज श्रीमद्भागवत के प्रवक्ता हैं। ऐसे प्रवक्ता जो साक्षात भगवान के अनुग्रह पात्र हैं, भगवत्पदप्राप्त महायुक्त हैं। वे भक्त-कल्याण के लिए आविर्भूत हुए। जैसे श्रीमद्भागवत के शुकदेव जी महान् प्रवक्ता हैं; वैसे ही परीक्षित जी श्रोता भी भगवान के साक्षात्कृपापात्र ही हैं। द्रौण्यस्त्रविप्लुष्टमिदं मदंग सन्तानबीजं कृरुपाण्डवानाम्। जिस समय द्रोण का पुत्र अश्वत्थामा के छोडे़ हुए ब्रह्मास्त्र से कौरव-पाण्डव के वंश का बीजरूप मेरा यह देह दग्ध हो रहा था, उस समय शरण में गयी हुई मेरी माता के गर्भ में प्रवेश कर जिन्होंने सुदर्शन चक्र द्वारा इसकी रक्षा की।।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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