- महाभारत उद्योग पर्व में प्रजागर पर्व के अंतर्गत 39वें अध्याय में 'धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का नीतियुक्त उपदेश' का वर्णन है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
धृतराष्ट्र के प्रति विदुरजी का नीतियुक्त उपदेश
धृतराष्ट्र ने कहा- विदुर! यह पुरुष ऐश्वर्य की प्राप्ति और नाश में स्वतंत्र नहीं है। ब्रह्मा ने धागे से बंधी हुई कठपुतली की भाँति इसे प्रारब्ध के अधीन कर रखा है इसलिये तुम कहते चलो, मैं सुनने के लिये धैर्य धारण किये बैठा हूँ। विदुर जी बोले- भारत समय के विपरीत यदि बृहस्पति भी कुछ बोलें तो उनका अपमान ही होगा और उनकी बुद्धि की भी अवज्ञा ही होगी। संसार में कोई मनुष्य दान देने से प्रिय होता है और दूसरा प्रिय वचन बोलने से प्रिय होता है और तीसरा मंत्र तथा औषध के बल से प्रिय होता है किंतु जो वास्तव में प्रिय है, वह तो सदा प्रिय ही है। जिससे द्वेष हो जाता है, वह न साधु, न विद्वान और न बुद्धिमान ही जान पड़ता है। प्रिय व्यक्ति [2] के तो सभी कर्म शुभ ही प्रतीत होते हैं और शत्रु के सभी कार्य पापमय होते हैं। राजन! दुर्योधन के जन्म लेते ही मैंने कहा था कि केवल इसी एक पुत्र को आप त्याग दें। इसके त्याग से सौ पुत्रों की वृद्धि होगी और इसका त्याग न करने से सौ पुत्रों का नाश होगा। जो वृद्धि भविष्य में नाश का कारण बने, उसे अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिये और उस क्षय का भी बहुत आदर करना चाहिये, जो आगे चलकर अभ्युदय का कारण हो। महाराज! वास्तव में जो क्षय वृद्धि का कारण होता है, वह क्षय नहीं है किंतु उस लाभ को भी क्षय ही मानना चाहिये, जिसे पाने से बहुत से लाभों का नाश हो जाये। कुछ लोग गुण से समृद्ध होते हैं और कुछ लोग धन से। जो धन के धनी होते हुए भी गुणों से हीन हैं, उन्हें सर्वथा त्याग दीजिये।
धृतराष्ट्र ने कहा- विदुर! तुम जो कुछ कह रहे हो, परिणाम में हितकर है; बुद्धिमान लोग इसका अनुमोदन करते हैं। यह भी ठीक है कि जिस ओर धर्म होता है, उसी पक्ष की जीत होती है, तो भी मैं अपने बेटे का त्याग नहीं कर सकता। विदुर जी बोले- राजन जो अधिक गुणों से सम्पन्न और विनयी है, वह प्राणियों का तनिक भी संहार होते देख उसकी कभी उपेक्षा नहीं कर सकता। जो दूसरों की निंदा में ही लगे रहते हैं, दूसरों को दु:ख देने और आपस में फूट डालने के लिये सदा उत्साह के साथ प्रयत्न करते हैं, जिनका दर्शन दोष से भरा[3] है और जिनके साथ रहने में भी बहुत बड़ा खतरा है, ऐसे लोगों से धन लेने में महान दोष है और उन्हें देने में बहुत बड़ा भय है। दूसरों में फूट डालने का जिनका स्वभाव है, जो कामी,निर्लज्ज, शठ और प्रसिद्ध पापी हैं, वे साथ रखने के कारण अयोग्य-निंदित माने गये हैं। उपर्युक्त दोषों के अतिरिक्त और भी जो महान दोष हैं, उनसे युक्त मनुष्यों का त्याग कर देना चाहिये। सौहार्द भाव निवृत्त हो जाने पर नीच पुरुषों का प्रेम नष्ट हो जाता है, उस सौहार्द से होने वाले फल की सिद्धि और सुख का भी नाश हो जाता है। (14)फिर वह नीच पुरुष निंदा करने के लिये यत्न करता है, थोड़ा भी अपराध हो जाने पर मोहवश विनाश के लिये उद्योग आरम्भ कर देता है। उसे तनिक भी शांति नहीं मिलती है।[1] वैसे नीच, क्रूर तथा अजितेन्द्रिय पुरुषों से हाने वाले संग पर अपनी बुद्धि से पूर्ण विचार करके विद्वान पुरुष उसे दूर से ही त्याग दे। जो अपने कुटुम्बी, दरिद्र, दीन तथा रोगी पर अनुग्रह करता है, वह पुत्र और पशुओं से वृद्धि को प्राप्त होता है और अनंत कल्याण का अनुभव करता है।
राजेन्द्र! जो लोग अपने भले की इच्छा करते हैं, उन्हें अपने जाति-भाइयों को उन्नतिशील बनाना चाहिये। इसलिये आप भली-भाँति अपने कुल की वृद्धि करें। जो अपने कुटम्बीजनों का सत्कार करता है, वह कल्याण का भागी होता है। भरतश्रेष्ठ! अपने कुटम्ब के लोग गुणहीन हों, तो भी उनकी रक्षा करनी चाहिये। फिर जो आपके कृपाभिलाषी एवं गुणवान हैं, उनकी तो बात ही क्या है। राजन! आप समर्थ हैं, वीर पाण्डवों पर कृपा कीजिये और उनकी जीविका के लिये उन्हें कुछ गांव दे दीजिये। नरेश्र्वर! ऐसा करने से आपको इस संसार में यश प्राप्त होगा। तात! आप वृद्ध हैं, इसलिये आपको अपने पुत्रों पर शासन करना चाहिये। राजेन्द्र मुझे भी आपकी हित की बात कहनी चाहिये। आप मुझे अपना हितैषी समझें। शुभ चाहने वाले को अपने जाति भाइयों के साथ झगड़ा नहीं करना चाहिये बल्कि उनके साथ मिलकर सुख का उपभोग करना चाहिये। जाति-भाइयों के साथ परस्पर भोजन, बातचीत एवं प्रेम करना ही कर्तव्य है उनके साथ कभी भी विरोध नहीं करना चाहिये। इस जगत में जाति-भाई ही तारते हैं और जाति-भाई ही डुबाते भी हैं। उनमें जो सदाचारी हैं, वे तो तारते हैं और दुराचारी डुबा देते हैं। राजेन्द्र! आप पाण्डवों के प्रति सद्व्यवहार करें। उनसे सुरक्षित होकर आप शत्रुओं के लिये दुर्धर्ष हो जाये। विषैले बाण हाथ में लिये हुए व्याघ के पास पहुँचकर जैसे मृग को कष्ट भोगना पड़ता है, उसी प्रकार जो जातीय बंधु अपने धनी बंधु के पास पहुँचकर दु:ख पाता है, उसके पाप का भागी वह धनी होता है।[4]
नरश्रेष्ठ! आप पाण्डवों को अथवा अपने पुत्रों को मारे गये सुनकर पीछे संताप करेंगे। अत: इस बात का पहले ही विचार कर लीजिये। इस जीवन का कोई ठिकाना नहीं है अतएव जिस कर्म के करने से [5] खटिया पर बैठकर पछताना पड़े, उसको पहले से ही नहीं करना चाहिये। शुक्राचार्य के सिवा दूसरा कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जो नीति का उल्लघंन नहीं करता; अत: जो बीत गया, सो बीत गया, शेष कर्तव्य का विचार[6] बुद्धिमान पुरुषों पर ही निर्भर है। नरेश्र्वर! दुर्योधन ने पहले यदि पाण्डवों के प्रति यह अपराध किया है तो आप इस कुल में बड़े-बूढ़े हैं आपके द्वारा उसका मार्जन हो जाना चाहिये। यदि आप उनको राजपद पर स्थापित कर देंगे तो संसार में आपका कलंक धुल जायगा और आप बुद्धिमान पुरुषों के माननीय हो जायेगे। जो धीर पुरुषों के वचनों के परिणाम पर विचार करके उन्हें कार्यरूप में परिणत करता है, वह चिरकाल तक यश का भागी बना रहता है। अत्यन्त कुशल विद्वानों के द्वारा भी उपेदश किया हुआ ज्ञान व्यर्थ ही है, यदि उससे कर्तव्य ज्ञान न हुआ अथवा ज्ञान होने पर भी उसका अनुष्ठान न हुआ हो।[4]
जो विद्वान पापरूप फल देने वाले कर्मों का आरम्भ नहीं करता, वह बढ़ता है किंतु जो पूर्व में किये हुए पापों का विचार न करके उन्हीं का अनुसरण करता है, वह खोटी बुद्धिवाला मनुष्य अगाध कीचड़ से भरे हुए घोर नरक में गिराया जाता है। बुद्धिमान पुरुष मन्त्रभेद के इन छ: द्वारों को जाने और धन को रक्षित रखने की इच्छा से इन्हें सदा बंद रखे- मादक वस्तुओं का सेवन, निद्रा, आवश्यक बातों की जानकारी न रखना, अपने नेत्र-मुख आदि का विकार, दुष्ट मन्त्रियों पर विश्वास और कार्यों में अकुशल दूत पर भी भरोसा रखना। विदुर जी कहते है- राजन जो इन द्वारों को जानकर सदा बंद किये रहता हैं, वह अर्थ, धर्म और काम के सेवन में लगा रह कर शत्रुओं को वश में कर लेता है। बृहस्पति के समान मनुष्य भी शास्त्रज्ञान अथवा वृद्धों की सेवा किये बिना धर्म और अर्थ का ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते। समुद्र में गिरी हुई वस्तु विनाश को प्राप्त हो जाती है जो सुनता नहीं, उससे कही हुई बात भी विनष्ट हो जाती है अजितेन्द्रिय पुरुष का शास्त्रज्ञान और राख में किया हुआ हवन भी नष्ट ही है। बुद्धिमान पुरुष बुद्धि से जाचंकर अपने अनुभव से बारंबार उनकी योग्यता का निश्चय करें फिर दूसरों से सुन कर और स्वयं देखकर भली-भाँति विचार करके विद्वानों के साथ मित्रता करे। विनय भाव अपयश का नाश करता है, पराक्रम अनर्थ को दूर करता है, क्षमा सदा ही क्रोध का नाश करती है और सदाचार कुलक्षण का अन्त करता है।
राजन! नाना प्रकार के परिच्छद[7], माता, घर, सेवा-शुश्रूषा और भोजन तथा वस्त्र के द्वारा कुल की परीक्षा करे। देहाभिमान से रहित पुरुष के पास भी यदि न्याय युक्त पदार्थ स्वत: उपस्थित हो तो वह उसका विरोध नहीं करता, फिर कातासक्त मनुष्य के लिये तो कहना ही क्या है? जो विद्वानों की सेवा में रहने वाला, वैद्य, धार्मिक, देखने में सुन्दर, मित्रों से युक्त तथा मधुर भाषी हो, ऐसे सुहृद् की सर्वथा रक्षा करनी चाहिये। अधम कुल में उत्पन्न हुआ हो या उत्तम कुल में- जो मर्यादा का उल्लघंन नहीं करता, धर्म की अपेक्षा रखता है, कोमल स्वभाव वाला तथा सलज्ज है, वह सैकड़ों कुलीनों से बढ़कर है। जिन दो मनुष्यों का चित्त से चित्त, गुप्त रहस्य से गुप्त रहस्य और बुद्धि से बुद्धि मिल जाती है, उनकी मित्रता कभी नष्ट नहीं होती। मेधावी पुरुष को चाहिये कि तृण से ढंके हुए कुएं की भाँति दुर्बुद्धि एवं विचार शक्ति से हीन पुरुष का परित्याग कर दे, क्योंकि उसके साथ की हुई मित्रता नष्ट हो जाती है। विद्वान पुरुष को उचित है कि अभिमानी, मूर्ख, क्रोधी, साहसिक और धर्महीन पुरुषों के साथ मित्रता न करे। मित्र तो ऐसा होना चाहिये, जो कृतज्ञ, धार्मिक, सत्यवादी, उदार, दृढ़ अनुराग रखने वाला, जितेन्द्रिय, मर्यादा के भीतर रहने वाला और मैत्री का त्याग न करने वाला हो। इन्द्रियों को सर्वथा रोक कर रखना तो मृत्यु से भी बढ़कर कठिन है और उन्हें बिल्कुल खुली छोड़ देना देवताओं का भी नाश कर देता है। सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति कोमलता का भाव, गुणों में दोष न देखना, क्षमा, धैर्य और मित्रों का अपमान न करना- ये सब गुण आयु को बढ़ाने वाले हैं- ऐसा विद्वान लोग कहते हैं।[8]
विदुरजी कहते है राजन जो नष्ट हुए धन को स्थिर बुद्धि का आश्रय ले अच्छी नीति से पुन: लौटा लाने की इच्छा करता है, वह वीर पुरुषों का-सा आचरण करता है। जो आने वाले दु:ख को रोकने का उपाय जानता है, वर्तमान कालिक कर्तव्य के पालन में दृढ़ निश्चय रखने वाला है और अतीतकाल में जो कर्तव्य शेष रह गया है, उसे भी जानता है, वह मनुष्य कभी अर्थ से हीन नहीं होता। मनुष्य मन, वाणी और कर्म से जिसका निरन्तर सेवन करता है, वह कार्य उस पुरुष को अपनी ओर खींच लेता है। इसलिये सदा कल्याणकारी कार्यों को ही करे। मांगलिक पदार्थों का स्पर्श, चित्तवृत्तियों का निरोध, शास्त्र का अभ्यास, उद्योगशील, सरलता और सत्पुरुषों का बारंबार दर्शन- ये सब कल्याणकारी हैं। उद्योग में लगे रहना- उससे विरक्त न होना धन, लाभ और कल्याण का मूल है। इसलिये उद्योग न छोड़ने वाला मनुष्य महान हो जाता है और अनन्त सुख का उपभोग करता है। तात! समर्थ पुरुष के लिये सब जगह और सब समय में क्षमा के समान हितकारक और अत्यन्त श्रीसम्पन्न बनाने वाला उपाय दूसरा नहीं माना गया है। जो शक्तिहीन है, वह तो सब पर क्षमा करे ही जो शक्तिमान है, वह भी धर्म के लिये क्षमा करे तथा जिसकी दृष्टि में अर्थ और अनर्थ दोनों समान हैं, उसके लिये तो क्षमा सदा ही हितकारिणी होती है। जिस सुख का सेवन करते रहने पर भी मनुष्य धर्म और अर्थ से भ्रष्ट नहीं होता, उसका यथेष्ट सेवन करे।
किंतु मूढव्रत[9] न करे। जो दु:ख से पीड़ित, प्रमादी, नास्तिक, आलसी, अजितेन्द्रिय और उत्साह रहित हैं, उनके यहाँ लक्ष्मी का वास नहीं होता। दुष्ट बुद्धि वाले लोग सरलता से युक्त और सरलता के ही कारण लज्जाशील मनुष्य को अशक्त मानकर उसका तिरस्कार करते हैं। अत्यन्त श्रेष्ठ, अतिशय दानी, अतीव शूरवीर, अधिक व्रत-नियमों का पालन करने वाले और बुद्धि के घमंड में चूर रहने वाले मनुष्य के पास लक्ष्मी भय के मारे नहीं जाती। लक्ष्मी न तो अत्यन्त गुणवानों के पास रहती है और न बहुत निर्गुणों के पास। यह न तो बहुत-से गुणों को चाहती है और न गुणहीन के प्रति ही अनुराग रखती है। उन्मत्त गौ की भाँति यह अन्धी लक्ष्मी कहीं-कहीं ही ठहरती है। वेदों का फल है अग्निहोत्र करना, शास्त्राध्ययन का फल है सुशीलता और सदाचार, स्त्री का फल है रतिसुख और पुत्र की प्राप्ति तथा धन का फल है दान और उपभोग। जो अधर्म के द्वारा कमाये हुए धन से परलौकिक कर्म करता है, वह मरने के पश्चात उसके फल को नहीं पाता क्योंकि उसका धन बुरे रास्ते से आया होता है। घोर जंगल में, दुर्गम मार्ग में, कठिन आपत्ति के समय, घबराहट में और प्रहार के लिये शस्त्र उठे रहने पर भी सत्त्व-सम्पन्न अर्थात आत्मबल से युक्त पुरुषों को भय नहीं होता। उद्योग, संयम, दक्षता, सावधानी, धैर्य, स्मृति और सोच-विचारकर कार्यारम्भ करना- इन्हें उन्नति का मूलमन्त्र समझिये। तपस्वियों का बल है तप, वेदवेत्ताओं का बल है वेद,पापियों का बल है हिंसा और गुणवानों का बल है क्षमा।जल, मूल, फल, दूध, घी, ब्राह्मण की इच्छापूर्ति, गुरु का वचन और औषध-ये आठ व्रत के नाशक नहीं होते।[10]
जो अपने प्रतिकूल जान पड़े, उसे दूसरों के प्रति भी न करे। थोड़े में धर्म का यही स्वरूप है। इसके विपरीत जिसमें कामना से प्रवृत्ति होती है, वह तो अधर्म है। अक्रोध से क्रोध को जीते, असाधु को सद्व्यवहार से वश में करे, कृपण को दान से जीते और झूठ पर सत्य से विजय प्राप्त करे। स्त्री लम्पट, आलसी, डरपोक, क्रोधी, पुरुषत्व के अभिमानी, चोर, कृतघ्र और नास्तिक का विश्वास नहीं करना चाहिये। जो नित्य गुरुजनों को प्रणाम करता है और वृद्ध पुरुषों की सेवा में लगा रहता है, उसकी कीर्ति, आयु, यश और बल ये चारों बढ़ते हैं। जो धन अत्यंत क्लेश उठाने से , धर्म का उल्लंघन करने से अथवा शत्रु के सामने सिर झुकाने से प्राप्त होता हो, उसमें आप मन न लगाइये। विद्याहीन पुरुष, संतानोत्पत्ति रहित स्त्रीप्रसंग, आहार न पाने वाली प्रजा और बिना राजा के राष्ट्र के लिये शोक करना चाहिये। अधिक राह चलना देहधारियों के लिये दु:खरूप बुढ़ापा है, बराबर पानी गिरना पर्वतों का बुढ़ापा है, सम्भोग से वंचित रहने का दुख स्त्रियों के लिये बुढ़ापा है और वचनरूपी बाणों का आघात मन के लिये बुढ़ापा है। अभ्यास न करना वेदों का मल है; ब्राह्मणोचित नियमों का पालन न करना ब्राह्मण का मल है, बाह्लीक देश[11]पृथ्वी का मल है तथा झूठ बोलना पुरुष का मल है, क्रीडा एवं हास-परिहास की उत्सुकता पतिव्रता स्त्री का मल है और पति के बिना परदेश में रहना स्त्री मात्र का मल है। सोने का मल है चाँदी, चाँदी का मल है राँगा, राँगे का मल है सीसा और सीसे का भी मल है मैलापन।
अधिक सो कर नींद को जीतने का प्रयास न करे, कामोपभोग के द्वारा स्त्री को जीतने की इच्छा न करे, लकड़ी डालकर आग को जीतने की आशा न रखे और अधिक पीकर मदिरा पीने की आदत को जीतने का प्रयास न करे। जिसका मित्र धन-दान के द्वारा वश में आ चुका है, शत्रु युद्ध में जीत लिये गये हैं और स्त्रियाँ खान-पान के द्वारा वशीभूत हो चुकी हैं, उसका जीवन सफल है अर्थात सुखमय है। जिनके पास हजार रूपये हैं, वे भी जीवित हैं तथा जिनके पास सौ रूपये हैं, वे भी जीवित हैं; अत: महाराज धृतराष्ट्र! आप अधिक का लोभ छोड़ दीजिये,इससे भी किसी तरह जीवन नहीं रहेगा, यह बात नहीं है। इस पृथ्वी पर जो भी धान, जौ, सोना, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सबके सब एक पुरुष के लिये भी पर्याप्त नहीं है।[12] ऐसा विचार करने वाला मनुष्य मोह में नहीं पड़ता। राजन! मैं फिर कहता हूँ, यदि आपका अपने पुत्रों और पाण्डवों में समान भाव है तो उन सभी पुत्रों के साथ एक-सा बर्ताव कीजिये।[13]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 39 श्लोक 1-15
- ↑ मित्र आदि
- ↑ अशुभ
- ↑ 4.0 4.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 39 श्लोक 16-34
- ↑ अन्त में
- ↑ आप-जैसे
- ↑ हाथी, घोड़ा, रथ आदि।
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 39 श्लोक 35-52
- ↑ निद्रा-प्रमादादि का सेवन
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 39 श्लोक 53-70
- ↑ बलख-बुखारा
- ↑ अर्थात उनसे किसी की भी तृप्ति नहीं हो सकती
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 39 श्लोक 71-85
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| गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना
| गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट
| गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन
| ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना
| हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना
| दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना
| उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना
| गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना
| ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना
| ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना
| ययाति का स्वर्गलोक से पतन
| ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास
| ययाति का फिर से स्वर्गारोहण
| स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत
| नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना
| धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
| दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय
| कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना
| कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह
| गांधारी का दुर्योधन को समझाना
| सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़
| धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना
| कृष्ण का विश्वरूप
| कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान
| कुंती का पांडवों के लिये संदेश
| कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ
| विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना
| विदुला और उसके पुत्र का संवाद
| विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश
| विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना
| कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना
| कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना
| कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार
| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना
| पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना
| पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
| पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना
| धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति
रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन
| कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद
| भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन
| पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा
| पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन
| भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन
अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण
| अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना
| अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग
| अम्बा और शैखावत्य संवाद
| होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप
| अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप
| अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह
| परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप
| परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना
| परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना
| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
| भीष्म और परशुराम का युद्ध
| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
| भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
| अम्बा की कठोर तपस्या
| अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश
| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
| शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप
| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
| स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप
| भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
| भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन
| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
| कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान
| पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान
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