धृतराष्ट्र के प्रति विदुर के नीतियुक्त वचन

महाभारत उद्योग पर्व में प्रजागर पर्व के अंतर्गत चौंतीसवें अध्याय में 'धृतराष्ट्र के प्रति विदुर के नीतियुक्त वचन' का वर्णन है, जो इस प्रकार है[1]-

धृतराष्ट्र द्वारा विदुर से कौरवों के लिए हितकर कार्य पूछना

धृतराष्‍ट्र बोले- तात! मैं चिंता से जलता हुआ अभी तक जाग रहा हूँ; तुम मेरे करने योग्‍य जो कार्य समझो, उसे बताओ; क्‍योंकि हम लोगों में तुम्‍हीं धर्म और अर्थ के ज्ञान में निपुण हो। उदारचित्‍त विदुर! तुम अपनी बुद्धि से विचार कर मुझे ठीक-ठीक उपदेश करो। जो बात युधिष्ठिर के लिये हितकर और कौरवों के लिये कल्‍याणकारी समझो, वह सब अवश्‍य बताओ। विद्वन मेरे मन में अनिष्‍ट की आशंका बनी रहती है, इसलिये मैं सर्वत्र अनिष्‍ट ही देखता हूँ, अत: व्‍याकुल हृदय से मैं तुमसे पूछ रहा हूँ- अजातशत्रु युधिष्ठिर क्‍या चाहते हैं, सो सब ठीक-ठीक बताओ।

विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को नीतियुक्त वचन सुनाना

विदुर जी ने कहा- राजन! मनुष्‍य को चाहिये कि वह जिसकी पराजय नहींं चाहता, उसको बिना पूछे भी अच्‍छी अथवा बुरी, कल्‍याण करने वाली या अनिष्‍ट करने वाली- जो भी बात हो, बता दे इसलिये राजन! जिससे समस्‍त कौरवों का हित हो, मैं वही बात आपसे कहूँगा। मैं जो कल्‍याणकारी एवं धर्मयुक्‍त वचन कह रहा हूँ, उन्‍हें आप ध्‍यान देकर सुनें। भारत! असत उपायों[2] आदि का प्रयोग करके जो कपटपूर्ण कार्य सिद्ध होते हैं, उनमें आप मन मत लगाइये। इसी प्रकार अच्‍छे उपायों का उपयोग करके सावधानी के साथ किया गया कोई कर्म यदि सफल न हो तो बुद्धिमान पुरुष को उसके लिये मन में ग्‍लानि नहींं करनी चाहिये। किसी प्रयोजन से किये गये कर्मों में पहले प्रयोजन को समझ लेना चाहिये। खूब सोच-विचार कर काम करना चाहिये, जल्‍दबाजी से किसी काम का आरम्‍भ नहींं करना चाहिये। धीर मनुष्‍य को उचित है कि पहले कर्मों का प्रयोजन, परिणाम तथा अपनी उन्‍नति का विचार करके फिर काम आरम्‍भ करे या न करे। राजा स्थिति, लाभ, हानि, खजाना, देश तथा दण्‍ड आदि की मात्रा को नहींं जानता, वह राज्‍य पर स्थिर नहीं रह सकता। जो इनके प्रमाणों को उपर्युक्‍त प्रकार से ठीक-ठीक जानता है तथा धर्म और अर्थ के ज्ञान में दत्तचित्त रहता है, वह राज्‍य को प्राप्‍त करता है। ‘अब तो राज्‍य प्राप्‍त हो ही गया’-ऐसा समझकर अनुचित बर्ताव नहींं करना चाहिये। उद्दण्‍डता सम्‍पत्ति को उसी प्रकार नष्‍ट कर देती है, जैसे सुंदर रूप को बुढ़ापा। जैसे मछली बढ़िया खाद्य वस्‍तु से ढकी हुई लोहे की कांटी को लोभ में पड़कर निगल जाती है, उससे होने वाले परिणाम पर विचार नहींं करती (अतएव मर जाती है)।

अत: अपनी उन्‍नति चाहने वाले पुरुष को वही वस्‍तु खानी (या ग्रहण करनी) चाहिये,[3] जो खाने योग्‍य हो तथा खायी जा सके, खाने (या ग्रहण करने) पर पच सके और पच जाने पर हितकारी हो। जो पेड़ से कच्‍चे फलों को तोड़ता है, वह उन फलों से रस तो पाता नहींं, परंतु उस वृक्ष के बीज का नाश हो जाता है। परंतु जो समय पर पके हुए फल को ग्रहण करता है, वह फल से रस पाता है और उस बीज से पुन: फल प्राप्‍त करता है। जैसे भौंरा फूलों की रक्षा करता हुआ ही उनके मधु का ग्रहण करता है, उसी प्रकार राजा भी प्रजाजनों को कष्‍ट दिये बिना ही उनसे धन ले।[1] जैसे माली बगीचे में एक-एक फूल तोड़ता है, उसकी जड़ नहींं काटता, उसी प्रकार राजा प्रजा की रक्षापूर्वक उनसे कर ले। कोयला बनाने वाले की तरह जड़ से नहींं काटे। इसे करने से मेरा क्‍या लाभ होगा और न करने से क्‍या हानि होगी- इस प्रकार कर्मों के विषय में भली-भाँति विचार करके फिर मनुष्‍य (कर्म) करे या न करे। कुछ ऐसे व्‍यर्थ कार्य हैं, जो नित्‍य अप्राप्‍त होने के कारण आरम्‍भ करने योग्‍य नहींं होते; क्‍योंकि उनके लिये किया हुआ पुरुषार्थ भी व्‍यर्थ हो जाता है। जिसकी प्रसन्‍नता का कोई फल नहींं और क्रोध भी व्‍यर्थ है, उसको प्रजा स्‍वामी बनाना नहींं चाहती- जैसे स्‍त्री नपुंसक को पति नहींं बनाना चाहती। जिनका मूल (साधन) छोटा और फल महान हो, बुद्धिमान पुरुष उनको शीघ्र ही आरम्‍भ कर देता है; वैसे कर्मों में वह विघ्न नहींं आने देता। जो राजा इस प्रकार प्रेम के साथ कोमल दृष्टि से देखता है, मानो आँखों से पीना चाहता है, वह चुपचाप बैठा भी रहे, तो भी प्रजा उससे अनुराग रखती है।

राजा वृक्ष की भाँति अच्‍छी तरह फूलने (प्रसन्‍न रहने) पर भी फल से ख़ाली रहे।[4] यदि फल से युक्‍त (देने वाला) हो तो भी जिस पर चढ़ा न जा सके, ऐसा (पहुँच के बाहर) होकर रहे। कच्‍चा[5] होने पर भी पके (शक्तिसम्‍पन्‍न) की भाँति अपने को प्रकट करे। ऐसा करने से वह नष्‍ट नहींं होता। जो राजा नेत्र, मन, वाणी और कर्म- इन चारों से प्रजा को प्रसन्‍न करता है, उसी से प्रजा प्रसन्‍न रहती है। जैसे व्‍याघ से हिरन भयभीत होते हैं, उसी प्रकार जिससे समस्‍त प्राणी डरते हैं, वह समुद्र पर्यन्‍त पृथ्वी का राज्‍य पाकर भी प्रजाजनों के द्वारा त्‍याग दिया जाता है। अन्‍याय में स्थित हुआ राजा बाप-दादों का राज्‍य पाकर भी अपने कर्मों से उसे इस तरह भ्रष्‍ट कर देता है, जैसे हवा बादल को छिन्‍न-भिन्‍न कर देती है। परम्‍परा से सज्‍जन पुरुषों द्वारा किये हुए धर्म का आचरण करने वाले राजा के राज्‍य की पृथ्‍वी धन-धान्‍य से पूर्ण होकर उन्‍नति को प्राप्‍त होती है ओर उसके ऐश्वर्य को बढ़ाती है। जो राजा धर्म को छोड़ता और अधर्म का अनुष्‍ठान करता है, उसकी राज्‍यभूमि आग पर रखे हुए चमड़े की भाँति संकुचित हो जाती है।[6]

विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को धर्मकार्यों के विषय में समझाना

विदुर कहतें हैं- राजन! दूसरे राष्‍ट्रों का नाश करने के लिये जिस प्रकार का प्रयत्‍न किया जाता है, उसी प्रकार की तत्‍परता अपने राज्‍य की रक्षा के लिये करनी चाहिये। धर्म से ही राज्‍य प्राप्‍त करें और धर्म से ही उसकी रक्षा करें; क्‍योंकि धर्ममूलक राज्‍यलक्ष्‍मी को पाकर न तो राजा उसे छोड़ता है और न वही राजा को छोड़ती है। निरर्थक बोलने वाले पागल तथा बकवाद करने वाले बच्‍चे से भी सब ओर से उसी भाँति सार बात ग्रहण करनी चाहिये, जैसे पत्‍थरों में से सोना लिया जाता है। जैसे शिलोञ्छवृत्ति से जीविका चलाने वाला अनाज का एक-एक दाना चुगता रहता है, उसी प्रकार धीर पुरुष को जहाँ-तहाँ से भावपूर्ण वचनों, सूक्तियों और सत्‍कर्मों का संग्रह करते रहना चाहिये। गौएं गन्‍ध से, ब्राह्मण लोग वेदों से, राजा गुप्‍तचरों से और अन्‍य साधारण लोग आँखों से देखा करते हैं। राजन! जो गाय बड़ी कठिनाई से दुहने देती है, वह बहुत क्‍लेश उठाती है; किंतु जो आसानी से दूध देती है, उसे लोग कष्‍ट नहींं देते।[6] जो धातु बिना गरम किये मुड़ जाते हैं, उन्‍हें आग में नहींं तपाते। जो काठ स्‍वयं झुका होता है, उसे कोई झुकाने का प्रयत्‍न नहींं करता। इस दृष्‍टांत के अनुसार बुद्धिमान पुरुष को अधिक बलवान के सामने झुक जाना चाहिये; जो अधिक बलवान के सामने झुकता है, वह मानो इन्‍द्र को प्रणाम करता है। पशुओं के रक्षक या स्‍वामी हैं बादल, राजाओं के सहायक हैं, मंत्री, स्त्रियों के बंधु (रक्षक) हैं पति और ब्राह्मणों के बान्‍धव हैं वेद। सत्‍य से धर्म की रक्षा होती है, योग से विद्या सुरक्षित होती है, सफाई से (सुंदर) रूप की रक्षा होती है और सदाचार से कुल की रक्षा होती है। भली-भाँति संभालकर रखने से नाज की रक्षा होती है, फेरने से घोड़े सुरक्षित रहते हैं, बांरबार देख-भाल करने से गौओं की तथा मैले वस्‍त्रों से स्त्रियों की रक्षा होती है। मेरा ऐसा विचार है कि सदाचार से हीन मनुष्‍य का केवल ऊंचा कुल मान्‍य नहींं हो सकता; क्‍योंकि नीच कुल में उत्‍पन्‍न मनुष्‍य का भी सदाचार श्रेष्‍ठ माना जाता है।

जो दूसरों के धन, रूप, पराक्रम, कुलीनता, सुख, सौभाग्‍य और सम्‍मान पर डाह करता है, उसका यह रोग असाध्‍य है। न करने योग्‍य काम करने से, करने योग्‍य काम में प्रमाद करने से तथा कार्य सिद्धि होने के पहले ही मन्‍त्र प्रकट हो जाने से डरना चाहिये और जिससे नशा चढ़े, ऐसी मादक वस्‍तु नहींं पीनी चाहिये। विद्या का मद, धन का मद और तीसरा ऊंचे कुल का मद है। ये घमंडी पुरुषों के लिये तो मद हैं, परंतु ये (विद्या, धन और कुलीनता) ही सज्‍जन पुरुषों के लिये दम के साधन हैं। कभी किसी कार्य में सज्‍जनों द्वारा प्रार्थित होने पर दुष्‍ट लोग अपने को प्रसिद्ध दुष्‍ट जानते हुए भी सज्‍जन मानने लगते हैं। मनस्‍वी पुरुषों को सहारा देने वाले संत हैं; संतों के भी सहारे संत ही हैं, दुष्‍टों को भी सहारा देने वाले संत हैं, पर दुष्‍ट लोग संतो को सहारा नहींं देते। अच्‍छे वस्‍त्र वाला सभा को जीतता[7] है; जिसके पास गौ है, वह (दूध, घी, मक्खन, खोवा आदि पदार्थों के आस्‍वादन से) मीठे स्‍वाद की आकांक्षा को जीत लेता है, सवारी से चलने वाला मार्ग को जीत लेता (तय कर लेता) है और शीलस्‍वभाव वाला पुरुष सब पर विजय पा लेता है। पुरुष में शील ही प्रधान है; जिसका वही नष्‍ट हो जाता है, इस संसार में उसका जीवन, धन और बंधुओं से कोई प्रयोजन सिद्ध नहींं होता।[8]

इंद्रियों को वश में रखने का महत्त्व

भरतश्रेष्‍ठ! धनोन्‍मत्‍त (तामस स्‍वभाव वाले) पुरुषों के भोजन में मांस की, मध्‍यम श्रेणी वालों के भोजन में गौरस की तथा दरिद्र के भोजन में तेल की प्रधानता होती है। दरिद्र पुरुष सदा स्‍वादिष्‍ट भोजन ही करते हैं; क्‍योंकि भूख उनके भोजन में (विशेष) स्‍वाद उत्‍पन्‍न कर देती है और वह भूख धनियों के लिये सर्वथा दुर्लभ है। राजन! संसार में धनियों को प्राय: भोजन को पचाने की शक्ति नहींं होती, किंतु दरिद्रों के पेट में काठ भी पच जाते हैं। अधम पुरुषों को जीविका न होने से भय लगता है, मध्‍यम श्रेणी के मनुष्‍यों को मृत्यु से भय होता है; परंतु उत्तम पुरुषों को अपमान से ही महान भय होता है।[8] यों तो (मादक वस्‍तुओं के) पीने का नशा आदि भी नशा ही है, किंतु ऐश्वर्य का नशा तो बहुत-ही बुरा है; क्‍योंकि ऐश्वर्य के मद से मतवाला पुरुष भ्रष्‍ट हुए बिना होश में नहींं आता। वश में न होने के कारण विषयों में रमने वाली इन्द्रियों से यह संसार उसी भाँति कष्‍ट पाता है, जैसे सूर्य आदि ग्रहों से नक्षत्र तिरस्‍कृत हो जाते हैं। जो मनुष्‍य जीवों को वश में करने वाली सहज पांच इन्द्रियों से जीत लिया गया, उसकी आपत्तियां शुक्लपक्ष के चंद्रमा की भाँति बढ़ती हैं। इन्द्रियों सहित मन को जीते बिना ही जो मन्त्रियों को जीतने की इच्‍छा करता है या मन्त्रियों को अपने अधीन किये बिना शत्रु जीतना चाहता है, उस अजितेन्द्रिय पुरुष को सब लोग त्‍याग देते हैं। जो पहले इन्द्रियों सहित मन ही शत्रु समझकर जीत लेता है, उसके बाद यदि वह मन्त्रियों तथा शत्रुओं को जीतने की इच्‍छा करे तो उसे सफलता मिलती है।

इन्द्रियों तथा मन को जीतने वाले, अप‍राधियों को दण्‍ड देने वाले और जांच-परखकर काम करने वाले धीर पुरुष की लक्ष्मी अत्‍यंत सेवा करती है। राजन! मनुष्‍य का शरीर रथ है, बुद्धि सारथि है और इन्द्रियां इसके घोड़े हैं। इनको वश में करके सावधान रहने वाला चतुर एवं धीर पुरुष काबू में किये हुए घोड़ों से रथी की भाँति सुखपूर्वक संसार-पथ का अतिक्रमण करता है। शिक्षा न पाये हुए तथा काबू में न आने वाले घोड़े जैसे मूर्ख सारथि को मार्ग में मार गिराते हैं, वैसे ही ये इन्द्रियां वश में न रहने पर पुरुष को मार डालने में भी समर्थ होती हैं। इन्द्रियों को वश में न रखने के कारण अर्थ को अनर्थ और अनर्थ को अर्थ समझकर अज्ञानी पुरुष बहुत बड़े दु:ख को भी सुख मान बैठता है। जो धर्म और अर्थ का परित्‍याग करके इन्द्रियों के वश में हो जाता है, वह शीघ्र ही ऐश्वर्य, प्राण, धन तथा स्‍त्री से हाथ धो बैठता है। जो अधिक धन का स्‍वामी होकर भी इन्द्रियों पर अधिकार नहींं रखता, वह इन्द्रियों को वश में न रखने के कारण ही ऐश्वर्य से भ्रष्‍ट हो जाता है। मन, बुद्धि और इन्द्रियों को अपने अधीन कर अपने से ही अपने आत्मा को जानने की इच्‍छा करे; क्‍योंकि आत्‍मा ही अपना बंधु और आत्‍मा ही अपना शत्रु है।

जिसने स्‍वयं अपने आत्मा को ही जीत लिया है, उसका आत्‍मा ही उसका बंधु है। वही आत्‍मा जीता गया होने पर सच्‍चा बंधु और वही न जीता हुआ होने पर शत्रु है। राजन! जिस प्रकार सूक्ष्‍म छेद वाले जाल में फंसी हुई दो बड़ी-बड़ी मछलियां मिलकर जाल को काट डालती हैं, उसी प्रकार ये काम और क्रोध दोनों विवेक को लुप्त कर देते हैं। जो इस जगत में धर्म तथा अर्थ का विचार करके विजय साधन-सामग्री का संग्रह करता है, वही उस सामग्री से युक्त होने के कारण सदा सुखपूर्वक समृद्धिशाली होता रहता है। जो चित्त के विकारभूत पांच इन्द्रिय रूपी भीतरी शत्रुओं को जीते बिना ही दूसरे शत्रुओं को जीतना चाहता है, उसे शत्रु पराजित कर देते हैं। इन्द्रियों पर अधिकार न होने के कारण बड़े-बड़े़ साधु भी अपने कर्मों से तथा राजा लोग राज्य के भोग विलासों से बंधे रहते हैं।[9]

विदुर द्वारा सज्जन व दुष्ट लोगों में भिन्नता प्रकट करना

पापाचारी दुष्‍टों का त्याग न करके उनके साथ मिले रहने से निरपराध सज्जनों को भी उन (पापियों) के समान ही दण्‍ड़ प्राप्त होता है, जैसे सूखी लकड़ी में मिल जाने से गीली भी जल जाती है; इसलिये दुष्‍ट पुरुषों के साथ कभी मेल न करें। जो पांच विषयों की ओर दौड़ने वाले अपने पांच इन्द्रिय-रूपी शत्रुओं को मोह के कारण वश में नहींं करता, उस मनुष्‍य को विपत्ति ग्रस लेती है। गुणों में दोष न देखना, सरलता, पवित्रता, संतोष, प्रिय वचन बोलना, इन्द्रियदमन, सत्यभाषण तथा सरलता- ये गुण दुरात्मा पुरुषों में नहींं होते। भारत! आत्मज्ञान, अक्रोध, सहनशीलता, धर्मपरायणता, वचन की रक्षा तथा दान- ये गुण अधम पुरुषों में नहींं होते। मूर्ख मनुष्‍य विद्वानों को गाली और निन्दा से कष्‍ट पहुँचाते हैं। गाली देने वाला पाप का भागी होता है और क्षमा करने वाला पाप से मुक्त हो जाता है।

दुष्‍ट पुरुषों का बल है हिंसा, राजाओं का बल है दण्ड देना, स्त्रियों का बल है सेवा और गुणवानों का बल है क्षमा। राजन! वाणी का पूर्ण संयम तो बहुत कठिन माना ही गया है; परंतु विशेष अर्थयुक्त और चमत्कारपूर्ण वाणी भी अधिक नहींं बोली जा सकती।[10] राजन! मधुर शब्दों में कही हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है; किंतु वही यदि कटु शब्दों में कही जाय तो महान अनर्थ का कारण बन जाती है। बाणों से बिंधा हुआ त‍था फरसे से काटा हुआ वन भी अ‍कुंरित हो जाता है; किंतु कटु वचन क‍हकर वाणी से किया हुआ भयानक घाव नहींं भरता। कर्णि, नालीक और नाराच नाम‍क बाणों को शरीर से निकाल सकते हैं, परंतु कटु वचनरूपी बाण नहींं निकाला जा सकता; क्योंकि वह हृदय के भीतर धंस जाता है।

कटु वचन रूपी बाण मुख से निकलकर दूसरों के मर्म-स्‍थान पर ही चोट करते हैं; उनसे आहत मनुष्‍य रात-दिन घुलता रहता है। अत: विद्वान पुरुष दूसरों पर उनका प्रयोग न करें। देवता लोग जिसे पराजय देते हैं; उसकी बुद्धि को पहले ही हर लेते हैं; इससे वह नीच कर्मों पर ही अधिक दृष्टि रखता है। विनाशकाल उपस्थित होने पर बुद्धि मलिन हो जाती है; फिर तो न्याय के समान प्रतीत होने वाला अन्याय हृदय से बाहर नहींं निकलता। भरतश्रेष्‍ठ! आपके पुत्रों की वह बुद्धि पाण्‍डवों के प्रति विरोध से व्याप्त हो गयी है; आप उन्हें पहचान नहींं रहे हैं। महाराज धृतराष्‍ट्र! जो राजलक्षणों से सम्पन्न होने के कारण त्रिभुवन का भी राजा हो सकता है, वह आपका आज्ञाकारी युधिष्ठिर ही इस पृथ्वी का शासक होने योग्य है। वह धर्म तथा अर्थ के तत्त्व को जानने वाला, तेज और बुद्धि से युक्त, पूर्ण सौभाग्यशाली तथा आपके सभी पुत्रों से बढ़-चढ़कर है। राजेन्द्र! धर्मधारियों में श्रेष्‍ठ युधिष्ठिर दया, सौम्यभाव तथा आपके प्रति गौरव बुद्धि के कारण बहुत कष्‍ट सह रहा है।[11]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 34 श्लोक 1-17
  2. अन्‍यायपूर्वक युद्ध एवं द्यूत
  3. जो परिणाम में अनिष्टकर न हो अर्थात
  4. अधिक देने वाला न हो
  5. कम शक्ति वाला
  6. 6.0 6.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 34 श्लोक 18-35
  7. अपना प्रभाव जमा लेता
  8. 8.0 8.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 34 श्लोक 36-52
  9. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 34 श्लोक 53-69
  10. इसलिये अत्यन्त दुष्‍कर होने पर भी वाणी का संयम करना ही उचित है
  11. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 34 श्लोक 70-86

सम्बंधित लेख

महाभारत उद्योग पर्व में उल्लेखित कथाएँ


सेनोद्योग पर्व
विराट की सभा में श्रीकृष्ण का भाषण | विराट की सभा में बलराम का भाषण | सात्यकि के वीरोचित उद्गार | द्रुपद की सम्मति | श्रीकृष्ण का द्वारका गमन | विराट और द्रुपद के संदेश | द्रुपद का पुरोहित को दौत्य कर्म के लिए अनुमति | पुरोहित का हस्तिनापुर प्रस्थान | श्रीकृष्ण का दुर्योधन और अर्जुन को सहायता देना | शल्य का दुर्योधन के सत्कार से प्रसन्न होना | इन्द्र द्वारा त्रिशिरा वध | वृत्तासुर की उत्पत्ति | वृत्तासुर और इन्द्र का युद्ध | देवताओं का विष्णु जी की शरण में जाना | इंद्र-वृत्तासुर संधि | इन्द्र द्वारा वृत्तासुर का वध | इंद्र का ब्रह्महत्या के भय से जल में छिपना | नहुष का इंद्र के पद पर अभिषिक्त होना | नहुष का काम-भोग में आसक्त होना | इंद्राणी को बृहस्पति का आश्वासन | देवता-नहुष संवाद | बृहस्पति द्वारा इंद्राणी की रक्षा | नहुष का इन्द्राणी को काल अवधि देना | इंद्र का ब्रह्म हत्या से उद्धार | शची द्वारा रात्रि देवी की उपासना | उपश्रुति देवी की मदद से इंद्र-इंद्राणी की भेंट | इंद्राणी के अनुरोध पर नहुष का ऋषियों को अपना वाहन बनाना | बृहस्पति और अग्नि का संवाद | बृहस्पति द्वारा अग्नि और इंद्र का स्तवन | बृहस्पति एवं लोकपालों की इंद्र से वार्तालाप | अगस्त्य का इन्द्र से नहुष के पतन का वृत्तांत बताना | इंद्र का स्वर्ग में राज्य पालन | शल्य का युधिष्ठिर आश्वासन देना | युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाओं का संक्षिप्त वर्णन

संजययान पर्व
द्रुपद के पुरोहित का कौरव सभा में भाषण | भीष्म द्वारा पुरोहित का समर्थन एवं अर्जुन की प्रशंसा | कर्ण के आक्षेपपूर्ण वचन | धृतराष्ट्र द्वारा दूत को सम्मानित करके विदा करना | धृतराष्ट्र का संजय से पाण्डवों की प्रतिभा का वर्णन | धृतराष्ट्र का पाण्डवों को संदेश | संजय का युधिष्ठिर से मिलकर कुशलक्षेम पूछना | युधिष्ठिर का संजय से कौरव पक्ष का कुशलक्षेम पूछना | संजय द्वारा युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र का संदेश सुनाने की प्रतिज्ञा करना | युधिष्ठिर का संजय को इंद्रप्रस्थ लौटाने की कहना | संजय का युधिष्ठिर को युद्ध में दोष की संभावना बताना | संजय को युधिष्ठिर का उत्तर | संजय को श्रीकृष्ण का धृतराष्ट्र के लिए चेतावनी देना | संजय की विदाई एवं युधिष्ठिर का संदेश | युधिष्ठिर का कुरुवंशियों के प्रति संदेश | अर्जुन द्वारा कौरवों के लिए संदेश | संजय का धृतराष्ट्र के कार्य की निन्दा करना

प्रजागर पर्व
धृतराष्ट्र-विदुर संवाद | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर के नीतियुक्त वचन | विदुर द्वारा सुधंवा-विरोचन विवाद का वर्णन | विदुर का धृतराष्ट्र को धर्मोपदेश | दत्तात्रेय एवं साध्य देवताओं का संवाद | विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को समझाना | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का हितोपदेश | विदुर के नीतियुक्त उपदेश | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का नीतियुक्त उपदेश | विदुर द्वारा धर्म की महत्ता का प्रतिपादन | विदुर द्वारा चारों वर्णों के धर्म का सक्षिप्त वर्णन

सनत्सुजात पर्व
विदुर द्वारा सनत्सुजात से उपदेश देने के लिए प्रार्थना | सनत्सुजात द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मज्ञान में मौन, तप तथा त्याग आदि के लक्षण | सनत्सुजात द्वारा ब्रह्मचर्य तथा ब्रह्म का निरुपण | गुण दोषों के लक्षण एवं ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन | योगीजनों द्वारा परमात्मा के साक्षात्कार का प्रतिपादन

यानसंधि पर्व
संजय का कौरव सभा में आगमन | संजय द्वारा कौरव सभा में अर्जुन का संदेश सुनाना | भीष्म का दुर्योधन से कृष्ण और अर्जुन की महिमा का बखान | भीष्म का कर्ण पर आक्षेप और द्रोणाचार्य द्वारा भीष्मकथन का अनुमोदन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के प्रधान सहायकों का वर्णन | भीमसेन के पराक्रम से धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र द्वारा अर्जुन से प्राप्त होने वाले भय का वर्णन | कौरव सभा में धृतराष्ट्र द्वारा शान्ति का प्रस्ताव | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को उनके दोष बताना तथा सलाह देना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से अपने उत्कर्ष और पांडवों के अपकर्ष का वर्णन | संजय द्वारा अर्जुन के ध्वज एवं अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा पांडवों की युद्ध विषयक तैयारी का वर्णन और धृतराष्ट्र का विलाप | दुर्योधन द्वारा अपनी प्रबलता का प्रतिपादन और धृतराष्ट्र का उस पर अविश्वास | संजय द्वारा धृष्टद्युम्न की शक्ति एवं संदेश का कथन | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | दुर्योधन का अहंकारपूर्वक पांडवों से युद्ध का निश्चय | धृतराष्ट्र का अन्य योद्धाओं को युद्ध से भय दिखाना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्ण और अर्जुन के संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र द्वारा कौरव-पांडव शक्ति का तुलनात्मक वर्णन | दुर्योधन की आत्मप्रशंसा | कर्ण की आत्मप्रशंसा एवं भीष्म द्वारा उस पर आक्षेप | कर्ण द्वारा कौरव सभा त्यागकर जाना | दुर्योधन द्वारा अपने पक्ष की प्रबलता का वर्णन | विदुर का दम की महिमा बताना | विदुर का धृतराष्ट्र से कौटुम्बिक कलह से हानि बताना | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | संजय का धृतराष्ट्र को अर्जुन का संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र के पास व्यास और गांधारी का आगमन | संजय का धृतराष्ट्र को कृष्ण की महिमा बताना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताना | कृष्ण के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन | धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान

भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना | कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय | कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना | भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव | कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना | कृष्ण को भीमसेन का उत्तर | कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना | अर्जुन का कथन | कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना | नकुल का निवेदन | सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति | द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन | कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान | युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश | कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन | वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन | कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार | कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना | दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना | धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार | विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना | दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना | दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना | हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत | धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य | कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना | कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना | कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना | कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना | विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना | कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना | कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश | कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण | कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण | परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन | कण्व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | कण्व मुनि द्वारा मातलि का उपाख्यान आरम्भ करना | मातलि का नारद संग वरुणलोक भ्रमण एवं अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना | नारद द्वारा पाताललोक का प्रदर्शन | नारद द्वारा हिरण्यपुर का दिग्दर्शन और वर्णन | नारद द्वारा गरुड़लोक तथा गरुड़ की संतानों का वर्णन | नारद द्वारा सुरभि तथा उसकी संतानों का वर्णन | नारद द्वारा नागलोक के नागों का वर्णन | मातलि का नागकुमार सुमुख के साथ पुत्री के विवाह का निश्चय | नारद का नागराज आर्यक से सुमुख तथा मातलि कन्या के विवाह का प्रस्ताव | विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह | विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन | दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना | नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन | गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन | गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना | गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना | गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना | गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट | गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन | ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना | हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना | दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना | उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना | गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना | ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना | ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना | ययाति का स्वर्गलोक से पतन | ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास | ययाति का फिर से स्वर्गारोहण | स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत | नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना | धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना | भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना | दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय | कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना | कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह | गांधारी का दुर्योधन को समझाना | सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़ | धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना | कृष्ण का विश्वरूप | कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान | कुंती का पांडवों के लिये संदेश | कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ | विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना | विदुला और उसके पुत्र का संवाद | विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश | विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना | कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना | कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना | कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार | कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन | कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन | कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन | कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन | कुंती का कर्ण के पास जाना | कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध | कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा | कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन | दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन | कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना

सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः