- गरुड़ द्वारा गालव से दक्षिण दिशा के बारे में बताना और कहना कि यह प्रसिद्ध है कि पूर्वकाल में भगवान सूर्य ने वेदोक्त विधि के अनुसार यज्ञ करके आचार्य कश्यप को दक्षिणा रूप से इस दिशा का दान किया था, इसलिए इसे दक्षिण दिशा कहते हैं। और मृत्यु के पश्चात् इस दिशा में जाने वाले प्राणी को ऐसे घोर अंधकार का सामना करना पड़ता है, जो साक्षात अग्नि एवं सूर्य के लिए भी अभेद्य है। गरुड़ कहते है कि गालव इस दिशा में चलना है तो चलो नहीं तो मैं पश्चिम दिशा का वर्णन करता हूँ जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत 110वें अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना
गरुड़ कहते हैं- गालव! यह जो सामने की दिशा है, जल के स्वामी दिक्पाल राजा वरुण को सदा ही अत्यंत प्रिय है। यही उनका आश्रय और उत्पति स्थान है। द्विजश्रेष्ठ! दिन के पश्चात् सूर्यदेव इसी दिशा में स्वयं अपनी किरणों का विसर्जन करते हैं, इसलिए यह 'पश्चिम' के नाम से विख्यात है। पूर्वकाल में भगवान कश्यपदेव ने जल जंतुओं का आधिपत्य और जल की रक्षा करने के लिए इसी दिशा में वरुण का अभिषेक किया था। अंधकार का नाश करने वाले चंद्रमा वरुण के निकट रहकर छ: प्रकार के सम्पूर्ण रसों का पान करके शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को इसी दिशा में नूतनता को प्राप्त होकर उदित होते हैं। ब्रह्मण! पूर्वकाल में वायुदेव ने अपने महान वेग से यहाँ युद्ध में दैत्यों को पराड्मुख, आबद्ध और पीड़ित किया था, जिससे वे लंबी सांस छोड़ते हुए धराशायी हो गए थे। इसी दिशा में अस्ताचल है, जो अपने प्रीतिपात्र सूर्यदेव को प्रतिदिन ग्रहण करता है। वहीं से पश्चिम संध्या का प्रसार होता है। इसी दिशा के दिन के अंत में मानो जीव-जगत की आधी आयु हर लेने के लिए रात्रि एवं निद्रा का प्राकट्य होता है। इसी दिशा में देवराज इन्द्र ने सोयी हुई गर्भवती दिति देवी के उदर में प्रवेश करके उसके गर्भ का उच्छेद किया था, जिससे मरुदगणों की उत्पत्ति हुई।
इसी दिशा में हिमालय का मूलभाग सदा मंदराचल तक फैलकर उसका स्पर्श करता है। सहसत्रों वर्षों में भी इसका अंत पाना असंभव है। इसी दिशा में सुवर्णमय पर्वत मंदराचल तथा स्वर्णमय कमलों से सुशोभित क्षीरसागर के तट पर पहुँचकर सुरभिदेवी अपने दूध का निर्झर बहाती है। पश्चिम दिशा में ही समुद्र के भीतर सूर्य के समान तेजस्वी उस राहू का कबंध (धड़) दिखाई देता है, जो सूर्य और चंद्रमा को मार डालने की इच्छा रखता है। इसी दिशा में पिंड्गलवर्ण के केशों से सुशोभित, अप्रमेय प्रभावशाली एवं अदृश्यमूर्ति मुनिवर सुवर्णशिरा सामगान करते हैं। उनके इस गीत की विपुल ध्वनि स्पष्ट सुनाई देती है। इसी दिशा में हरिमेधा मुनि की कुमारी कन्या ध्वजवती निवास करती है, जो सूर्यदेव की 'ठहरो' 'ठहरो' इस आज्ञा से आकाश में स्थित है। गालव! वायु, अग्नि, जल और आकाश- ये सब इस दिशा में रात्रि और दिन के दुःखदायी स्पर्श का परित्याग करते हैं अर्थात यहाँ इनका स्पर्श सदा सुखद ही होता है। इसी दिशा से सूर्यदेव तिरछी गति से चक्कर लगाना आरंभ करते हैं। यहीं सम्पूर्ण ज्योतियाँ सूर्यमण्डल में प्रवेश करती हैं। अभिजीत सहित अट्ठाईस नक्षत्रों में प्रत्येक अट्ठाईसवें दिन सूर्य के साथ विचरण करके अमावस्या के बाद फिर सूर्यमण्डल से पृथक हो जाता है। इसी दिशा से उन अधिकांश नदियों का प्राकट्य हुआ है, जिनके जल से समुद्र की पूर्ति होती रहती है। यहीं के वरुनालय में त्रिभुवन के लिए उपयोगी जलराशि संचित है। यहाँ नागराज अनंत का निवास तथा आदि-अंत से रहित भगवान विष्णु का सर्वोत्कृष्ट स्थान है। इसी दिशा में अग्निदेव के सखा वायुदेव का भवन तथा मरीचिनंदन महर्षि कश्यप का आश्रम है। द्विजश्रेष्ठ गालव! इस प्रकार मैंने तुम्हें संक्षेप से पश्चिम का मार्ग बताया है। अब बताओ, तुम्हारा क्या विचार है? हम दोनों किस दिशा की ओर चलें?
टीका टिप्पणी व संदर्भ
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| संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताना
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| धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान
भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना
| कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय
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| भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव
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| कृष्ण को भीमसेन का उत्तर
| कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना
| अर्जुन का कथन
| कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना
| नकुल का निवेदन
| सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति
| द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन
| कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान
| युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश
| कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन
| वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन
| कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार
| कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना
| दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना
| धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार
| विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना
| दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना
| दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना
| हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत
| धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य
| कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना
| कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना
| कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना
| कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना
| विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना
| कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना
| कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश
| कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण
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| परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन
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| गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना
| गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना
| गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट
| गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन
| ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना
| हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना
| दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना
| उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना
| गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना
| ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना
| ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना
| ययाति का स्वर्गलोक से पतन
| ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास
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| नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना
| धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
| दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय
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| कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह
| गांधारी का दुर्योधन को समझाना
| सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़
| धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना
| कृष्ण का विश्वरूप
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| कुंती का पांडवों के लिये संदेश
| कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ
| विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना
| विदुला और उसके पुत्र का संवाद
| विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश
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| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना
| कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना
| कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार
| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
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दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना
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| परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप
| परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना
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| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
| भीष्म और परशुराम का युद्ध
| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
| भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
| अम्बा की कठोर तपस्या
| अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश
| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
| शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप
| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
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