- महाभारत उद्योग पर्व में प्रजागर पर्व के अंतर्गत पैंतीसवें अध्याय में 'विदुर का धृतराष्ट्र को धर्मोपदेश' नामक कथा का वर्णन है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को समझाना
विदुर जी कहते हैं- इसलिये राजेन्द्र! आप पृथ्वी के लिये झूठ न बोलें। बेटे के स्वार्थवश सच्ची बात न कहकर पुत्र और मन्त्रियों के साथ विनाश के मुख में न जायं। देवता लोग चरवाहों की तरह डंडा लेकर किसी का पहरा नहीं देते। वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं, उसे उत्तम बुद्धि से युक्त कर देते हैं। मनुष्य जैसे-जैसे कल्याण में मन लगाता है, वैसे-ही-वैसे उसके सारे अभीष्ट सिद्ध होते हैं- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। कपटपूर्ण व्यवहार करने वाले मायावी को वेद पापों से मुक्त नहीं करते; किंतु जैसे पंख निकल आने पर चिड़ियों के बच्चे घोंसला छोड़ देते हैं, उसी प्रकार वेद भी अंतकाल में उस (मायावी) को त्याग देते हैं। शराब पीना, कलह, समूह के साथ बैर, पति-पत्नी में भेद पैदा करना, कुटुम्ब वालों में भेद बुद्धि उत्पन्न करना, राजा के साथ द्वेष, स्त्री और पुरुष में विवाद और बुरे रास्ते- ये सब त्याग देने योग्य बताये गये हैं। हस्तरेखा देखने वाला, चोरी करके व्यापार करने वाला, जुआरी, वैद्य, शत्रु, मित्र और नर्तक इन सातों को कभी भी गवाह न बनावे।
विदुर द्वारा कर्मों के फलों का वर्णन
विदुर जी कहते हैं- राजन! आदर के साथ अग्निहोत्र, आदरपूर्वक मौन का पालन, आदरपूर्वक स्वाध्याय और आदर के साथ यज्ञ का अनुष्ठान- ये चार कर्म भय को दूर करने वाले हैं; किंतु वे ही यदि ठीक तरह से सम्पादित न हों तो भय प्रदान करने वाले होते हैं। घर में आग लगाने वाला, विष देने वाला, जारज संतान की कमाई खाने वाला, सोमरस बेचने वाला, शस्त्र बनाने वाला, चुगली करने वाला, मित्रद्रोही, परस्त्रीलम्पट, गर्भ की हत्या करने वाला, गुरुस्त्रीगामी, ब्राह्मण होकर शराब पीने वाला, अधिक तीखे स्वभाव वाला, कौए की तरह कायं-कायं करने वाला, नास्तिक, वेद की निंदा करने वाला, ग्रामपुरोहित: व्रात्य, क्रूर तथा शक्तिमान होते हुए भी ‘मेरी रक्षा करो’, इस प्रकार कहने वाले शरणागत का जो वध करता है- ये सबके सब ब्राह्महत्यारों के समान हैं। जलती हुई आग से सुवर्ण की पहचान होती है, सदाचार से सत्पुरुष की, व्यवहार से श्रेष्ठ पुरुष की, भय प्राप्त होने पर शूर की, आर्थिक कठिनाई में धीर की और कठिन आपत्ति में शत्रु एवं मित्र की परीक्षा होती है। बुढ़ापा (सुंदर) रूप को, आशा धीरता को, मृत्यु प्राणों को, असूया[2] धर्माचरण को, क्रोध लक्ष्मी को, नीच पुरुषों की सेवा सत्स्वभाव को, काम लज्जा को और अभिमान सर्वस्व को नष्ट कर देता है।[1]
शुभ कर्मों से लक्ष्मी की उत्पत्ति होती है, प्रगल्भता से वह बढ़ती है, चतुरता से जड़ जमा लेती है और संयम से सुरक्षित रहती है। आठ गुण पुरुष की शोभा बढ़ाते हैं- बुद्धि, कुलीनता, दम, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, बहुत न बोलना, यथाशक्ति दान देना ओर कृतज्ञ होना। तात! एक गुण ऐसा है, जो इन सभी महत्त्वपूर्ण गुणों- पर हठात अधिकार जमा लेता है। जिस समय राजा किसी मनुष्य का सत्कार करता है, उस समय यह एक ही गुण (राजसम्मान) सभी गुणों से बढ़कर शोभा पाता है। राजन! मनुष्य लोक में ये आठ गुण स्वर्गलोक का दर्शन कराने वाले हैं; इनमें से चार तो संतों के साथ नित्य सम्बद्ध हैं- उनमें सदा विद्यमान रहते हैं और चार का सज्जन पुरुष अनुसरण करते हैं। यज्ञ, दान, शास्त्रों का अध्ययन और तप- ये चार सज्जनों के साथ नित्य सम्बद्ध हैं; इन्द्रियनिग्रह, सत्य, सरलता तथा कोमलता- इन चारों का संत लोग अनुसरण करते हैं। यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, दया और निर्लोभता- ये धर्म के आठ प्रकार के मार्ग बताये गये हैं। इनमें से पहले चारों का तो कोई[3] दम्भ के लिये सेवन कर सकता है, परंतु अंतिम चार तो जो महात्मा नहीं हैं, उनमें रह ही नहीं सकते। जिस सभा में बड़े-बूढ़े नहीं, वह सभा नहीं; जो धर्म की बात न कहे, वे बूढ़े नहीं; जिसमें सत्य नहीं, वह धर्म नहीं और जो कपट से पूर्ण हो, वह सत्य नहीं है। सत्य, विनय की मुद्रा, शास्त्रज्ञान, विद्या, कुलीनता, शील, बल, धन, शूरता और चमत्कारपूर्ण बात कहना- ये दस स्वर्ग के हेतु हैं। पापकीर्ति वाला निन्दित मनुष्य पापाचरण करता हुआ पाप के फल को ही प्राप्त करता है और पुण्य कीर्ति वाला (प्रशंसित) मनुष्य पुण्य करता हुआ अत्यंत पुण्यफल का ही उपभोग करता है। इसलिये प्रशंसित व्रत का आचरण करने वाले पुरुष को पाप नहीं करना चाहिये; क्योंकि बारंबार किया हुआ पाप बुद्धि को नष्ट कर देता। जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य सदा पाप ही करता रहता है। इसी प्रकार बारंबार किया हुआ पुण्य बुद्धि को बढ़ाता है। जिसकी बुद्धि बढ़ जाती है, वह मनुष्य सदा पुण्य ही करता है। इस प्रकार पुण्यकर्मा मनुष्य पुण्य करता हुआ पुण्यलोक को ही जाता है।[4]
विदुर का धर्मोपदेश देना
इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह सदा एकाग्रचित्त होकर पुण्य का ही सेवन करे। गुणों में दोष देखने वाला, मर्म पर आघात करने वाला, निर्दयी, शत्रुता करने वाला और शठ मनुष्य पाप का आचरण करता हुआ शीघ्र ही महान कष्ट को प्राप्त होता है। दोष दृष्टि से रहित शुद्ध बुद्धि वाला पुरुष सदा शुभकर्मों का अनुष्ठान करता हुआ महान सुख को प्राप्त होता है और सर्वत्र उसका सम्मान होता है। जो बुद्धिमान पुरुषों से सद्बुद्धि प्राप्त करता है, वही पण्डित है; क्योंकि बुद्धिमान पुरुष ही धर्म और अर्थ को प्राप्त कर अनायास ही अपनी उन्नति करने में समर्थ होता है। दिन भर में ही वह कार्य कर ले, जिससे रात में सुख से रह सके और आठ महीनों में वह कार्य कर ले, जिससे वर्षा के चार महीने सुख से व्यतीत कर सके। पहली अवस्था में वह काम करे, जिससे वृद्धावस्था में सुखपूर्वक रह सके और जीवन भर वह कार्य करे, जिससे मरने के बाद भी[5] सुख से रह सके।[4]
सज्जन पुरुष पच जाने पर अन्न की, (निष्कलंक) यौवन बीत जाने पर स्त्री की, संग्राम जीत लेने पर शूर की और संसार सागर को पार कर लेने पर तपस्वी की प्रशंसा करते हैं। अधर्म से प्राप्त हुए धन के द्वारा जो दोष छिपाया जाता है, वह तो छिपता नहीं;[6] उससे भिन्न और नया दोष प्रकट हो जाता है। अपने मन और इन्द्रियों को वश में करने वाले शिष्यों के शासक गुरु हैं, दुष्टों के शासक राजा हैं और छिपे-छिपे पाप करने वालों के शासक सूर्यपुत्र यमराज हैं। ऋषि, नदी, वंश एवं महात्माओं का तथा स्त्रियों के दुश्चरित्र का उत्पत्ति स्थान नहीं जाना जा सकता। राजन! ब्राह्मणों की सेवा-पूजा में संलग्न रहने वाला, दाता, कुटुम्बीजनों के प्रति कोमलता का बर्ताव करने वाला और शीलवान राजा चिरकाल तक पृथ्वी का पालन करता है। शूर, विद्वान और सेवा धर्म को जानने वाले- ये तीन प्रकार के मनुष्य पृथ्वीरूप लता से सुवर्णरूपी पुष्प का संचय करते हैं। भारत! बुद्धि से विचार कर किये हुए कर्म श्रेष्ठ होते हैं, बाहुबल से किये जाने वाले कर्म मध्यम श्रेणी के हैं, जंघा से किये जाने वाले कार्य अधम हैं और भार ढोने का काम महान अधम है।
राजन! अब आप दुर्योधन, शकुनि, मूर्ख दु:शासन तथा कर्ण पर राज्य का भार रखकर उन्नति कैसे चाहते हैं? भरतश्रेष्ठ! पाण्डव तो सभी उत्तम गुणों से सम्पन्न हैं और आप में पिता का सा भाव रखकर बर्ताव करते हैं; आप भी उन पर पुत्रभाव रखकर उचित बर्ताव कीजिये। [7]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 35 श्लोक 34-50
- ↑ गुणों में दोष देखने का स्वभाव
- ↑ दम्भी पुरुष भी
- ↑ 4.0 4.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 35 श्लोक 51-68
- ↑ परलोक में
- ↑ परंतु दोष छिपाने के कारण
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 35 श्लोक 69-77
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| उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना
| गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना
| ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना
| ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना
| ययाति का स्वर्गलोक से पतन
| ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास
| ययाति का फिर से स्वर्गारोहण
| स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत
| नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना
| धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
| दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय
| कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना
| कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह
| गांधारी का दुर्योधन को समझाना
| सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़
| धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना
| कृष्ण का विश्वरूप
| कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान
| कुंती का पांडवों के लिये संदेश
| कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ
| विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना
| विदुला और उसके पुत्र का संवाद
| विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश
| विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना
| कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना
| कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना
| कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार
| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
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दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना
| पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना
| पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
| पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना
| धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति
रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन
| कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद
| भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन
| पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा
| पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन
| भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन
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| भीष्म और परशुराम का युद्ध
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