गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट

गरुड़ द्वारा गालव को पूर्व दिशा की यात्रा कराने पर भी गालव को इस दिशा से कोई प्रयोजन नहीं मिला है और वह वापिस जाने को कहकर कहते है कि 'मैंने गुरु को ऐसे आठ सौ घोड़े देने की प्रतिज्ञा की है, जो चंद्रमा के समान उज्ज्वल कान्ति से युक्त हों और जिनके कान एक ओर से श्याम रंग के हों।' किन्तु अण्डज! उन घोड़ों के दिये जाने का कोई मार्ग मुझे नहीं दिखाई देता है। इसीलिए मैंने अपने जीवन के परित्याग का ही मार्ग चुना है। तब गरुड़ उनसे कहते है कि मेरी दृष्टि में एक महान उपाय है, जिससे यह कार्य सिद्ध हो सकता है तो गरुड़ उन्हें तपस्विनी शाण्डिली से भेंट कराने के लिये कहते हैं जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत 113वें अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

महर्षि गालव और गरुड़ की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट

नारदजी कहते है- तदनंतर गालव और गरुड़ ने ऋषभ पर्वत के शिखर पर उतरकर वहाँ तपस्विनी शाण्डिली ब्राह्मणी को देखा। गरुड़ ने उसे प्रणाम किया और गालव ने उसका आदर-सम्मान किया। तदनंतर उसने भी उन दोनों का स्वागत करके उन्हें आसन पर बैठने के लिए कहा। उसकी आज्ञा पाकर वे दोनों वहाँ आसन पर बैठ गए। तपस्विनी ने उन्हें बलिवैश्वदेव से बचा हुआ अभिमंत्रित सिद्धान्न अर्पण किया। उसे खाकर वे दोनों तृप्त हो गए और भूमि पर ही सो गए। तत्पश्चात् निद्रा ने उन्हें अचेत कर दिया।

गरुड़ तथा गालव संवाद

दो ही घड़ी के बाद मन में वहाँ से जाने की इच्छा लेकर गरुड़ जाग उठे। उठने पर उन्होंने अपने शरीर को दोनों पंखों से रहित देखा। आकाशचारी गरुड़ मुख और हाथों से युक्त होते हुए भी उन पंखों के बिना मांस के लोंदे से हो गए। उन्हें इस दशा में देखकर गालव का मन उदास हो गया और उन्होंने पूछा-'सखे! तुम्हें यहाँ आने का क्या फल मिला? इस अवस्था में हम दोनों को यहाँ कितने समय तक रहना पड़ेगा? 'तुमने अपने मन में कौन सा अशुभ चिंतन किया है, जो धर्म को दूषित करने वाला रहा है। मैं समझता हूँ, तुम्हारे द्वारा यहाँ कोई थोड़ा धर्मविरुद्ध कार्य नहीं हुआ होगा।' तब गरुड़ ने विप्रवर गालव से कहा- 'ब्रह्मण! मैंने तो अपने मन में यही सोचा था कि इस सिद्ध तपस्विनी को वहाँ पहुँचा दूँ, जहाँ प्रजापति ब्रह्मा हैं, जहाँ महादेवजी हैं, जहाँ सनातन भगवान विष्णु हैं तथा जहाँ धर्म एवं यज्ञ है, वहीं इसे निवास करना चाहिये। 'अत: मैं भगवती शाण्डिली के चरणों में पड़कर यह प्रार्थना करता हूँ कि मैंने अपने चिंतनशील मन के द्वारा आपका प्रिय करने की इच्छा से ही यह बात सोची है। 'आपके प्रति विशेष आदर का भाव होने से ही मैंने इस स्थान पर ऐसा चिंतन किया है, जो संभवत: आपको अभीष्ट नहीं रहा है। मेरे द्वारा यह पुण्य हुआ हो या पाप, अपने ही माहात्मय से आप मेरे इस अपराध को क्षमा कर दें'।

तपस्विनी शाण्डिली का गरुड़ और गालव से वापिस जाने को कहना

यह सुनकर तपस्विनी बहुत संतुष्ट हुई। उसने उस समय पक्षीराज गरुड़ और विप्रवर गालव से कहा- 'सुपर्ण! तुम्हारे पंख और भी सुंदर हो जाएँगे अत: तुम्हें भयभीत नहीं होना चाहिये। तुम घबराहट छोड़ो। 'वत्स! तुमने मेरी निंदा की है, मैं निंदा नहीं सहन करती हूँ। जो पापी मेरी निंदा करेगा, वह पुण्यलोकों से तत्काल भ्रष्ट हो जाएगा। 'समस्त अशुभ लक्षणों से हीन और अनिंदित रहकर सदाचार का पालन करते हुए ही मैंने उत्तम सिद्धि प्राप्त की है। 'आचार ही धर्म को सफल बनाता है, आचार ही धनरूपी फल देता है, आचार से मनुष्य को संपत्ति प्राप्त होती है और आचार ही अशुभ लक्षणों का भी नाश कर देता है। 'अत: आयुष्मान पक्षीराज! अब तुम यहाँ से अपने अभीष्ट स्थान को जाओ। आज से तुम्हें मेरी निंदा नहीं करनी चाहिये। मेरी ही क्यों, कहीं किसी भी स्त्री की निंदा करनी उचित नहीं है।[1] 'अब तुम पहले की भाँति बल और पराक्रम से सम्पन्न हो जाओगे।' शाण्डिली के इतना कहते ही गरुड़ की पंखें पहले से भी अधिक शक्तिशाली हो गईं। तत्पश्चात् शाण्डिली की आज्ञा लेकर वे जैसे आए थे, वैसे ही चले गए। वे गालव के बताए अनुसार श्यामकर्ण घोड़े नहीं पा सके।

गरुड़ और गालव का गुरुदक्षिणा चुकाने के विषय में परस्पर विचार

इधर गालव को राह में आते देख वक्ताओं में श्रेष्ठ विश्वामित्र खड़े हो गए और गरुड़ के समीप उनसे इस प्रकार बोले- 'ब्रह्मण! तुमने स्वयं ही जिस धन को देने की प्रतिज्ञा की थी, उसे देने का समय आ गया है। फिर तुम जैसा ठीक समझो, करो। मैं इतने ही समय तक और तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा। ब्रह्मण! जिस प्रकार तुम्हें सफलता मिल सके, उस मार्ग का विचार करो।' तदनंतर दीन और अत्यंत दुखी हुए गालव मुनि से गरुड़ ने कहा- 'द्विजश्रेष्ठ गालव! विश्वामित्रजी ने मेरे सामने जो कुछ कहा है, आओ, उसके विषय में हम दोनों सलाह करें। तुम्हें अपने गुरु को उनका सारा धन चुकाए बिना चुप नहीं बैठना चाहिए।'[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 113 श्लोक 1-16
  2. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 113 श्लोक 17-23

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