- युधिष्ठिर के पूछने पर श्रीकृष्ण उन्हें युद्ध को ही उचित कार्य बताते हैं। युद्ध के विषय में सोचकर वह संताप करते हैं तब अर्जुन श्रीकृष्ण के वचनों का समर्थन करते हैं। अब दुर्योधन भी अपनी सेना का विभाजन करता हैं उस समय अपनी ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओं के लिए अलग-अलग सेनापतियों का अभिषेक करता है, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में सैन्यनिर्याण पर्व के अंतर्गत अध्याय 155 में निम्न प्रकार हुआ है[1]-
विषय सूची
दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन करना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! रात बीतने पर जब सवेरा हुआ, तब राजा दुर्योधन ने अपनी ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओं का विभाग किया। राजा दुर्योधन ने पैदल, हाथी, रथ और घुड़सवार- इन सभी सेनाओं में से उत्तम, मध्यम और निकृष्ट श्रेणियों को पृथक-पृथक करके उन्हें यथास्थान नियुक्त कर दिया। वे सब वीर अनुकर्ष[2], तरकस, वरूथ[3], ऋृष्टि[4], ध्वजा, पताका, धनुष-बाण, तरह-तरह की रस्सियाँ, पाश, बिस्तर, कचग्रह-विक्षेप,[5] तेल, गुड़, बाली, विषधर सर्पों के घड़े, राल का चूरा, घण्टफलक [6], खंड्गादि लोहे के शस्त्र, औंटा हुआ गुड़ का पानी, षेले, साल, भिंदीपाल[7], मोम चुपड़े हुए मुद्गर, काँटीदार लाठियाँ, हल, विष लगे हुए बाण, सूप तथा टोकरियाँ, दरात, अंकुश, तोमर, काँटेदार कवच, वसूले, और आदि, बाघ और गैंड़े के चमड़े से मढ़े हुए रथ, ऋष्टि, सींग, प्रास, भाँति-भाँति के आयुध, कुठार, कुदाल, तेल में भीगे हुए रेशमी वस्त्र तथा घी लिये हुए थे। वे सभी सैनिक सोने के जालीदार कवच धारण किये नाना प्रकार के मणिमय आभूषणों से विभूषित हो समस्त सेना को ही विचित्र शोभा से सम्पन्न करते हुए अपने सुन्दर शरीर से प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। इसी प्रकार जो शस्त्र-विद्या का निश्चित ज्ञान रखने वाले, कुलीन तथा घोड़ों की नस्ल को पहचानने वाले थे, वे कवचधारी शूरवीर ही सारथि के काम पर नियुक्त किये गये थे।
उस सेना के रथों में अमंगल निवारण के लिये यन्त्र और औषधियाँ बाँधी गयी थीं। वे रस्सियों से खूब कसे गये थे। उन रथों पर बँधी हुई ध्वज-पताकाएँ फहरा रहीं थी उनके ऊपर छोटी-छोटी घंटियाँ बँधी थीं और कंगूरे जोड़े गये थे। उन सब में ढाल-तलवार और पटि्टश आबद्ध थे। उन सभी रथों में चार-चार घोड़े जुते हुए थे, वे सभी घोड़े अच्छी जाति के थे और सम्पूर्ण रथों में प्रास, ऋष्टि एवं सौ-सौ धनुष रखे गये थे। प्रत्येक रथ के दो-दो घोड़ों पर एक-एक रक्षक नियुक्त था, एक-एक रथ के लिये दो चक्ररक्षक नियत किये गये थे। वे दोनों ही रथियों में श्रेष्ठ थे तथा रथी भी अश्व संचालन की कला में निपुण थे। सब ओर सुवर्णमालाओं से अलंकृत हजारों रथ शोभा पा रहे थे। शत्रुओं के लिये उनका भेदन करना अत्यन्त कठिन था। वे सब-के-सब नगरों की भाँति सुरक्षित थे। जिस प्रकार रथ सजाये गये थे, उसी प्रकार हाथियों को भी स्वर्णमालाओं से सुसज्जित किया गया था। उन सबको रस्सों से कसा गया था। उन पर सात-सात पुरुष बैठे हुए थे, जिससे वे हाथी रत्नयुक्त पर्वतों के समान जान पड़ते थे। राजन! उनमें से दो पुरुष अंकुश लेकर महावत का काम करते थे, दो उत्तम धनुर्धर योद्धा थे, दो पुरुष अच्छी तलवारें लिये रहते थे और एक पुरुष शक्ति तथा त्रिशूलधारण करता था। राजन! महामना दुर्योधन की वह सारी सेना ही अस्त्र-शस्त्रों के भण्डार से युक्त मदमत्त गजराजों से व्याप्त हो रही थीं।
इसी प्रकार कवचधारी, युद्ध के लिये उद्यत, आभूषणों से विभूषित तथा पताकाधारी सवार से युक्त हजारों लाखों घोड़े उस सेना में मौजूद थे। वे घोड़े उछल-कूद मचाने आदि दोषों से रहित होने के कारण सदा अपने सवारों के वश में रहते थे। उन्हें अच्छी शिक्षा मिली थी। वे सुनहरे साजों से सुसज्जित थे। उनकी संख्या कई लाख थी। उस सेना में जो पैदल मनुष्य थे, वे भी सोने के हारों से अलंकृत थे। उनके रूप-रंग, कवच और अस्त्र-शस्त्र नाना प्रकार के दिखायी देते थे। एक-एक रथ के पीछे दस-दस हाथी, एक-एक हाथी के पीछे दस-दस घोड़े और एक-एक घोड़े के पीछे दस-दस पैदल सैनिक सब ओर पादरक्षक नियुक्त किये गये थे। एक-एक रथ के पीछे पचास-पचास हाथी, एक-एक हाथी के पीछे सौ-सौ घोड़े और एक-एक घोड़े के साथ सात-सात पैदल सैनिक इस उद्देशय से संगठित किये गये थे कि वे समूह से बिछुड़ी हुई दो सैनिक टुकड़ियों को परस्पर मिला दें। पांच सौ हाथियों और पांच सौ रथों की एक सेना होती है। दस सेनाओं की एक पृतना और दस पृतनाओं की एक वाहिनी होती है।[1] इसके सिवा सेना, वाहिनी, पृतना, ध्वजिनी, चमू, वरूथिनी और अक्षौहिणी- इन पर्यायवाची[8] नामों द्वारा भी सेना का वर्णन किया गया है। इस प्रकार बुद्धिमान दुर्योधन ने अपनी सेनाओं को व्यूहरचनापूर्वक संगठित किया था।
दुर्योधन द्वारा पृथक-पृथक अक्षौहिणियों के सेनापतियों का अभिषेक
कुरुक्षेत्र में ग्यारह और सात मिलकर अठारह अक्षौहिणी सेनाएं एकत्र हुई थी। पाण्डवों की सेना केवल सात अक्षौहिणी थी और कौरवों के पक्ष में ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएं एकत्र हो गयी थीं। पचपन पैदलों की एक टुकड़ी को पत्ति कहते हैं। तीन पत्तियाँ मिलकर एक सेनामुख कहलाती है। सेनामुख का ही दूसरा नाम गुल्म है। तीन गुल्मों का एक गण होता है। दुर्योधन की सेनाओं में युद्ध करने वाले पैदल योद्धाओं के ऐसे-ऐसे गण दस हजार से भी अधिक थे। उस समय वहाँ महाबाहु राजा दुर्योधन ने अच्छी तरह सोच-विचार कर बुद्धिमान एवं शूरवीर पुरुषों को सेनापति बनाया। कृपाचार्य, द्रोणाचार्य और अश्वत्थामा इन श्रेष्ठ पुरुषों को एवं मद्रराज शल्य, सिंधुराज जयद्रथ, कम्बोजराज सुदक्षिण, कृतवर्मा, कर्ण, भूरिश्रवा, सुबलपुत्र शकुनि तथा उन सबको पृथक-पृथक एक-एक अक्षौहिणी सेना का नायक निश्चित करके विधिपूर्वक उनका अभिषेक किया। भारत! दुर्योधन प्रतिदिन और प्रत्येक वेला में उन सेनापतियों का बारंबार विविध प्रकार से प्रत्यक्ष पूजन करता था। उनके जो अनुयायी थे, उनको भी उसी प्रकार यथायोग्य स्थानों पर नियुक्त कर दिया गया। वे राजाओं के सैनिक राजा दुर्योधन का प्रिय करने की इच्छा रखकर अपने-अपने कार्य में तत्पर हो गये।[9]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 155 श्लोक 1-24
- ↑ रथ की मरम्मत के लिये उसके नीचे बँधा हुआ काष्ठ
- ↑ जिन्हें हाथी या घोड़े उठा सकें, ऐसे तरकस
- ↑ एक प्रकार की लोहे की लाठी
- ↑ बाल पकड़कर गिराने का यंत्र
- ↑ घुँघरुओं वाली ढाल
- ↑ गोफियाँ
- ↑ समानार्थक
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 155 श्लोक 25-35
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| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
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| परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप
| परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना
| परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना
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| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
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| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
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