- द्रोणाचार्य और भीष्म दुर्योधन को फिर से समझाते हुए कहते हैं कि- 'दुर्योधन! जब तक हाथ में गदा लिए भीमसेन तुम्हारी सेना का संहार करते हुए युद्ध के विभिन्न मार्गों में विचरण नहीं कर रहे हैं, तभी तक तुम पाँडवों के साथ संधि कर लो।' परंतु वह नहीं मानता और अब दुर्योधन पांडवों को राज्य न देने का निश्चय करता है, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत अध्याय 127 में निम्न प्रकार हुआ है[1]-
विषय सूची
दुर्योधन का श्रीकृष्ण को उत्तर देना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कौरव सभा में यह अप्रिय वचन सुनकर दुर्योधन ने यशस्वी महाबाहु वसुदेवनंदन श्रीकृष्ण को इस प्रकार उत्तर दिया- ‘केशव! आपको अच्छी तरह सोच-विचार कर ऐसी बातें कहनी चाहिए। आप तो विषेशरूप से मुझे ही दोषी ठहराकर मेरी निंदा कर रहे हैं। मधुसूदन! आप पांडवों के प्रेम कि दुहाई देकर जो अकारण ही सदा हमारी निंदा करते रहते हैं, इसका क्या कारण है? क्या आप हम लोगों के बलाबल का विचार करके ऐसा करते हैं? मैं देखता हूँ, आप, विदुर जी, पिताजी, आचार्य अथवा पितामह भीष्म सभी लोग केवल मुझ पर ही दोषारोपण करते हैं, दूसरे किसी राजा पर नहीं। परंतु मुझे यहाँ अपना कोई दोष नहीं दिखाई देता है। इधर राजा धृतराष्ट्र सहित आप सब लोग अकारण ही मुझसे द्वेष रखने लगे हैं। शत्रुदमन केशव! मैं अत्यंत सोच-विचार कर दृष्टि डालता हूँ, तो भी मुझे अपना कोई सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अपराध भी नहीं दृष्टिगोचर होता है।
मधुसूदन! पांडवों को जूए का खेल बड़ा प्रिय था। इसलिए वे उसमें प्रवृत हुए। फिर यदि मामा शकुनि ने उनका राज्य जीत लिया तो इसमें मेरा क्या अपराध हो गया? मधुसूदन! उस जूए में पांडवों ने जो कुछ भी धन हारा था, वह सब उसी समय उन्हीं को लौटा दिया गया था। विजयी वीरों में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण! यदि अजेय पांडव जूए में पुन: पराजित हो गए और वन में जाने को विवश हुए तो यह हम लोगों का अपराध नहीं है। कृष्ण! हमारे किस अपराध से असमर्थ पांडव शत्रुओं के साथ मिलकर हमारा विरोध करते हैं और ऐसा करके भी सहज शत्रु की भाँति प्रसन्न हो रहे हैं। हमने उनका क्या बिगाड़ा है? वे पांडव हमारे किस अपराध पर सुहृदयों के साथ मिलकर हम धृतराष्ट्रपुत्रों का वध करना चाहते हैं? हम लोग किसी के भयंकर कर्म अथवा भयानक वचन से भयभीत हो क्षत्रिय धर्म से च्युत होकर साक्षात इंद्र के सामने भी नतमस्तक नहीं हो सकते। शत्रुओं का संहार करने वाले श्रीकृष्ण! मैं क्षत्रिय धर्म का अनुष्ठान करने वाले किसी भी ऐसे वीर को नहीं देखता, जो युद्ध में हम सब लोगों को जीतने का साहस कर सके।'[1]
‘मधुसूदन! भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य और कर्ण को तो देवता भी युद्ध में नहीं जीत सकते, फिर पांडवों की तो बात ही क्या है? माधव! अपने धर्म पर दृष्टि रखते हुए यदि हम लोग युद्ध में किसी समय अस्त्रों के आघात से मृत्यु को प्राप्त हो जाएँ तो वह भी हमारे लिए स्वर्ग की ही प्राप्ति कराने वाली होगी। जनार्दन! हम क्षत्रियों का यही प्रधान धर्म है की संग्राम में हमें बाण-शय्या पर सोने का अवसर प्राप्त हो। अत: माधव! हम अपने शत्रुओं के सामने नतमस्तक न होकर यदि युद्ध में वीरशय्या को प्राप्त हों तो इससे हमारे भाई-बंधुओं को संताप नहीं होगा। उत्तम कुल में उत्पन्न होकर क्षत्रिय धर्म के अनुसार जीवन-निर्वाह करने वाला कौन ऐसा महापुरुष होगा, जो क्षत्रियोचित वृत्ति पर दृष्टि रखते हुए भी इस प्रकार भय के कारण कभी शत्रु के सामने मस्तक झुकाएगा?[1] वीर पुरुष को चाहिए की वह सदा उद्योग ही करे, किसी के सामने नतमस्तक न हो, क्योंकि उद्योग करना ही पुरुष का कर्तव्य-पुरुषार्थ है। वीर पुरुष असमय में ही नष्ट भले हो जाये, परंतु कभी शत्रु के सामने सिर न झुकावे। अपना हित चाहने वाले मनुष्य मातंग मुनि के उपयुर्क्त वचन को ही ग्रहण करते हैं, अत: मेरे जैसा पुरुष केवल धर्म तथा ब्राह्मण को ही प्रणाम कर सकता है, शत्रुओं को नहीं। वह दूसरे किसी को कुछ भी न समझकर जीवन भर ऐसा ही आचरण[2] करता रहे, यही क्षत्रियों का धर्म है और सदा के लिए मेरा मत भी यही है।[3]
उसका पांडवों को राज्य न देने का निश्चय
‘केशव! मेरे पिता जी ने पूर्वकाल में जो राज्यभाग मेरे अधीन कर दिया है, उसे कोई मेरे जीते जी फिर कदापि नहीं पा सकता। जनार्दन! जब तक राजा धृतराष्ट्र जीवित हैं, तब तक हमें और पांडवों को हथियार न उठाकर शांतिपूर्वक जीवन बिताना चाहिए। वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! पहले भी जो पांडवों को राज्य का अंश दिया गया था, वह उन्हें देना उचित नहीं था, परंतु मैं उन दिनों बालक एवं पराधीन था, अत: अज्ञान अथवा भय से जो कुछ उन्हें दे दिया गया था, उसे अब पांडव पुन: नहीं पा सकते। केशव! इस समय मुझ महाबाहु दुर्योधन के जीते-जी पांडवों को भूमि का उतना अंश भी नहीं दिया जा सकता, जितना कि एक बारीक सूई की नोक से छिद सकता है।'[3]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 127 श्लोक 1-18
- ↑ उद्योग
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 127 श्लोक 19-25
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| अर्जुन का कथन
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| युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश
| कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन
| वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन
| कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार
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| धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार
| विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना
| दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना
| दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना
| हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत
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| कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना
| कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना
| कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना
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| गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना
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| गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन
| ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना
| हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना
| दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना
| उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना
| गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना
| ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना
| ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना
| ययाति का स्वर्गलोक से पतन
| ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास
| ययाति का फिर से स्वर्गारोहण
| स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत
| नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना
| धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
| दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय
| कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना
| कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह
| गांधारी का दुर्योधन को समझाना
| सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़
| धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना
| कृष्ण का विश्वरूप
| कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान
| कुंती का पांडवों के लिये संदेश
| कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ
| विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना
| विदुला और उसके पुत्र का संवाद
| विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश
| विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना
| कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना
| कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना
| कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार
| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना
| पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना
| पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
| पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना
| धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति
रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन
| कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद
| भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन
| पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा
| पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन
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अम्बोपाख्यानपर्व
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| अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना
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| अम्बा और शैखावत्य संवाद
| होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप
| अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप
| अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह
| परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप
| परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना
| परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना
| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
| भीष्म और परशुराम का युद्ध
| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
| भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
| अम्बा की कठोर तपस्या
| अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश
| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
| शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप
| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
| स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप
| भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
| भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन
| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
| कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान
| पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान
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