कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना

जब कृष्ण कुंती से मिलते हैं तो वह उनसे विलाप करती हैं। तब कृष्ण कुंती को आश्वासन देते हैं कि- "तुम्हारे सभी पुत्र निद्रा, तंद्रा (आलस्य), क्रोध, हर्ष, भूख-प्यास तथा सर्दी-गर्मी इन सबको जीतकर सदा विरोचित सुख का उपभोग करते हैं। तुम्हारे पुत्रों ने ग्राम्यसुख को त्याग दिया है, विरोचित सुख ही उन्हें सदा प्रिय है।" अब वह दुर्योधन के घर जाते हैं जहाँ वह दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत अध्याय 91 में निम्न प्रकार हुआ है।[1]

श्रीकृष्ण का दुर्योधन के घर जाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! शत्रुओं का दमन करने वाले शूरनंदन श्रीकृष्ण कुंती की परिक्रमा करके एवं उनकी आज्ञा ले दुर्योधन के घर गए। वह घर इंद्र के भवन के समान उत्तम शोभा से सम्पन्न था। उसमें यथास्थान विचित्र आसन सजाकर रखे गए थे। श्रीकृष्ण ने उस गृह में प्रवेश किया। द्वारपालों ने रोक-टोक नहीं की। उस राजभवन की तीन ड्योढ़ियाँ पार करके महायशस्वी श्रीकृष्ण एक ऐसे प्रासाद पर आरुढ़ हुए, जो आकाश में छाए हुए शरद-बादलों के समान श्वेत, पर्वत शिखर के समान ऊंचा तथा अपनी अद्भुत प्रभा से प्रकाशमान था। वहाँ उन्होंने सिंहासन पर बैठे हुए धृतराष्ट्र के पुत्र महाबाहु दुर्योधन को देखा, जो सहस्रों राजाओं और कौरवों से घिरा हुआ था। दुर्योधन के पास ही दु:शासन, कर्ण तथा सुबलपुत्र शकुनि ये भी आसनों पर बैठे थे। श्रीकृष्ण ने उनको भी देखा। दशार्हनन्दन श्रीकृष्ण के आते ही महायशस्वी दुर्योधन मधुसूदन का सम्मान करते हुए मंत्रियों सहित उठकर खड़ा हो गया। मंत्रियों सहित दुर्योधन से मिलकर वृष्णिकुलभूषण केशव अवस्था के अनुसार वहाँ सभी राजाओं से यथायोग्य मिले। उस राजसभा में सुंदर रत्नों से विभूषित एक सुवर्णमय पर्यंक रखा हुआ था, जिस पर भाँति-भाँति के बिछौने बिछे हुए थे। भगवान श्रीकृष्ण उसी पर विराजमान हुए।[1]

कृष्ण द्वारा भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना

उस समय कुरुराज ने जनार्दन की सेवा में गौ, मधुपर्क, जल, गृह तथा राज्य सब कुछ निवेदन कर दिया। उस पर्यंक पर बैठे हुए भगवान गोविंद निर्मल सूर्य के समान तेजस्वी प्रतीत हो रहे थे। उस समय राजाओं सहित समस्त कौरव उनके पास आकर बैठ गए। तदनंतर राजा दुर्योधन ने विजयी वीरों में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण को भोजन के लिए निमंत्रित किया, परंतु केशव ने उस निमंत्रण को स्वीकार नहीं किया। तब कुरुराज दुर्योधन ने कर्ण से सलाह लेकर कौरव सभा में श्रीकृष्ण से पूछा। पूछते समय पहले तो उसकी वाणी में मृदुता थी, परंतु अंत में शठता प्रकट होने लगी थी। दुर्योधन बोला- 'जनार्दन! आपके लिए अन्न, जल, वस्त्र और शय्या आदि जो वस्तुएँ प्रस्तुत की गईं, उन्हें आपने ग्रहण क्यों नहीं किया? आपने तो दोनों पक्षों को ही सहायता दी है, आप उभय पक्ष के हित-साधन में तत्पर हैं। माधव! महाराज धृतराष्ट्र के आप प्रिय संबंधी भी हैं। चक्र और गदा धारण करने वाले गोविंद! आपको धर्म और अर्थ का सम्पूर्ण रूप से यथार्थ ज्ञान भी है, फिर मेरा आतिथ्य ग्रहण न करने का क्या कारण है; यह मैं सुनना चाहता हूँ।' वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! इस प्रकार पूछे जाने पर उस समय महामनस्वी कमलनयन श्रीकृष्ण ने अपनी विशाल भुजा ऊपर उठाकर राजा दुर्योधन को सजल जलधर के समान गम्भीर वाणी में उत्तर देना आरंभ किया। उनका वह वचन परम उत्तम, युक्तिसंगत, दैन्यरहित प्रत्येक अक्षर की स्पष्टता से सुशोभित तथा स्थानभ्रष्टता एवं संकीर्णता आदि दोषों से रहित था। 'भारत! ऐसा नियम है कि दूत अपना प्रयोजन सिद्ध होने पर ही भोजन और सम्मान स्वीकार करते हैं। तुम भी मेरा उद्देश्य सिद्ध हो जाने पर ही मेरा और मेरे मंत्रियों का सत्कार करना।'[1] 'दशार्हनंदन मधुसूदन! आपका उद्देश्य सफल हो या न हो, हम लोग तो आपके सम्मान का प्रयत्न करते ही हैं; किन्तु हमें सफलता नहीं मिल रही है। मधुदैत्य का विनाश करने वाले पुरुषोत्तम! हमें ऐसा कोई कारण जान नहीं पड़ता, जिसके होने से आप हमारी प्रेमपूर्वक अर्पित की हुई पूजा ग्रहण न कर सकें। गोविंद! आपके साथ हम लोगों का न तो कोई बैर है और न झगड़ा ही है। इन सब बातों का विचार करके आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! यह सुनकर दशार्हकुलभूषण जनार्दन ने मंत्रियों सहित दुर्योधन की ओर देखते हुए हँसते हुए-से उत्तर दिया। 'राजन! मैं काम से, क्रोध से, द्वेष से, स्वार्थवश, बहानेबाजी अथवा लोभ से किसी भी प्रकार धर्म का त्याग नहीं कर सकता। किसी के घर का अन्न या तो प्रेम के कारण भोजन किया जाता है या आपत्ति में पड़ने पर। नरेश्वर! प्रेम तो तुम नहीं रखते और किसी आपत्ति में हम नहीं पड़े हैं। राजन! पांडव तुम्हारे भाई ही हैं; वे अपने प्रेमियों का साथ देने वाले और समस्त सद्गुणों से सम्पन्न हैं, तथापि तुम जन्म से ही उनके साथ अकारण ही द्वेष करते हो। बिना कारण ही कुंती के पुत्रों के साथ द्वेष रखना तुम्हारे लिए कदापि उचित नहीं है। पांडव सदा अपने धर्म में स्थित रहते हैं, अत: उनके विरुद्ध कौन क्या कह सकता है? जो पांडवों से द्वेष करता है, वह मुझसे भी द्वेष करता है और जो उनके अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है। तुम मुझे धर्मात्मा पांडवों के साथ एकरूप हुआ ही समझो। जो काम और क्रोध के वशीभूत होकर मोहवश किसी गुणवान पुरुष के साथ विरोध करना चाहता है, उसे पुरुषों में अधम कहा गया है। जो कल्याणमय गुणों से युक्त अपने कुटुम्बीजनों को मोह और लोभ की दृष्टि से देखना चाहता है, वह अपने मन और क्रोध को न जीतने वाला पुरुष दीर्घकाल तक राजलक्ष्मी का उपभोग नहीं कर सकता। जो अपने मन को प्रिय न लगने वाले गुणवान व्यक्तियों को भी अपने प्रिय व्यवहार द्वारा वश में कर लेता है, वह दीर्घकाल तक यशस्वी बना रहता है। जो द्वेष रखता हो, उसका अन्न नहीं खाना चाहिए। द्वेष रखने वाले को खिलाना भी नहीं चाहिए। राजन! तुम पांडवों से द्वेष रखते हो और पांडव मेरे प्राण हैं। तुम्हारा यह सारा अन्न दुर्भावना से दूषित है। अत: मेरे भोजन करने योग्य नहीं है। मेरे लिए तो यहाँ केवल विदुर का ही अन्न खाने योग्य है। यह मेरी निश्चित धारणा है।' अमर्षशील दुर्योधन से ऐसा कहकर महाबाहु श्रीकृष्ण उसके भव्य भवन से बाहर निकले। वहाँ से निकलकर महामना महाबाहु भगवान वासुदेव ठहरने के लिए महात्मा विदुर के भवन में गए।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 91 श्लोक 1-19
  2. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 91 श्लोक 20-41

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सेनोद्योग पर्व
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संजययान पर्व
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प्रजागर पर्व
धृतराष्ट्र-विदुर संवाद | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर के नीतियुक्त वचन | विदुर द्वारा सुधंवा-विरोचन विवाद का वर्णन | विदुर का धृतराष्ट्र को धर्मोपदेश | दत्तात्रेय एवं साध्य देवताओं का संवाद | विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को समझाना | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का हितोपदेश | विदुर के नीतियुक्त उपदेश | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का नीतियुक्त उपदेश | विदुर द्वारा धर्म की महत्ता का प्रतिपादन | विदुर द्वारा चारों वर्णों के धर्म का सक्षिप्त वर्णन

सनत्सुजात पर्व
विदुर द्वारा सनत्सुजात से उपदेश देने के लिए प्रार्थना | सनत्सुजात द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मज्ञान में मौन, तप तथा त्याग आदि के लक्षण | सनत्सुजात द्वारा ब्रह्मचर्य तथा ब्रह्म का निरुपण | गुण दोषों के लक्षण एवं ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन | योगीजनों द्वारा परमात्मा के साक्षात्कार का प्रतिपादन

यानसंधि पर्व
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भगवद्यान पर्व
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सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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