- महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत 78वें अध्याय में 'अर्जुन का कथन' का वर्णन है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
अर्जुन द्वारा श्रीकृष्ण को अपने विचार प्रकट करना
श्रीकृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र के पास जाकर दोनों पक्षों में संधि कराने का प्रयत्न सुनकर अर्जुन ने कहा– जनार्दन! मुझे जो कुछ कहना था, वह सब तो महाराज युधिष्ठिर ने ही कह दिया। शत्रुओं को संतप्त करने वाले प्रभो! आपकी बात सुनकर मुझे ऐसा जान पड़ता है कि आप धृतराष्ट्र के लोभ तथा हमारी प्रस्तुत दीनता के कारण संधि कराने का कार्य सरल नहीं समझ रहे हैं। अथवा आप मनुष्य के पराक्रम को निष्फल मानते हैं क्योंकि पूर्वजन्म के कर्म[2]के बिना केवल पुरुषार्थ से किसी फल की प्राप्ति नहीं होती। आपने जो बात कही है, वह ठीक है परंतु सदा वैसा ही हो, यह नहीं कहा जा सकता। किसी भी कार्य को असाध्य नहीं समझना चाहिए। आप ऐसा मानते हैं कि हमारा यह वर्तमान कष्ट ही हमें पीड़ित करने वाला है, परंतु वास्तव में हमारे शत्रुओं के किए हुए वे कार्य ही हमें कष्ट दे रहे हैं; जिनका उनके लिए भी कोई विशेष फल नहीं है।
प्रभों! जिस कार्य को अच्छी तरह किया जाय, वह सफल हो सकता है। श्रीकृष्ण! आप ऐसा ही प्रयत्न करें, जिससे शत्रुओं के साथ हमारी संधि हो जाये। वीरवर! जैसे प्रजापति ब्रह्मा जी देवताओं तथा असुरों के भी प्रधान हितैषी हैं, उसी प्रकार आप हम पांडवों तथा कौरवों के भी प्रधान सुहृद हैं। इसलिए आप ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे कौरवों तथा पांडवों के भी दु:ख का निवारण हो जाए। मेरा विश्वास है कि हमारे लिए हितकर कार्य करना आपके लिए दुष्कर नहीं है। जनार्दन! ऐसा करना आपके लिए अत्यंत आवश्यक कर्तव्य है। प्रभों! आप वहाँ जाने मात्र से यह कार्य सफलता पूर्वक सम्पन्न कर लेंगे। वीर! उस दुरात्मा दुर्योधन के प्रति आपको कुछ और करना अभीष्ट हो, तो जैसी आपकी इच्छा होगी, वह सब कार्य उसी रूप में सम्पन्न होगा। श्रीकृष्ण! कौरवों के साथ हमारी संधि हो अथवा आप जो कुछ करना चाहते हों, वही हो। विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आपकी जो इच्छा हो, वही हमारे लिए गौरव तथा समादर की वस्तु है।
वह दुष्टात्मा दुर्योधन अपने पुत्रों और बंधु-बांधवों सहित वध के ही योग्य है, जो धर्मपुत्र युधिष्ठिर के पास आई हुई संपत्ति देखकर उसे सहन न कर सका। इतना ही नहीं, जब कपटद्यूत का आश्रय लेने वाले उस क्रूरात्मा ने किसी धर्मसम्मत उपाय युद्ध आदि को अपने लिए सफलता देने वाला नहीं देखा, तब कपटपूर्ण उपाय से उस संपत्ति का अपहरण कर लिया। क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुआ कोई भी धनुर्धर पुरुष किसी के द्वारा युद्ध के लिए आमंत्रित होने पर कैसे पीछे हट सकता है? भले ही वैसा करने पर उसके लिए प्राण-त्याग का संकट भी उपस्थित हो जाए। वृष्णिकुलनन्दन! हम लोग अधर्म पूर्वक जूए में पराजित किए गए और वन में भेज दिये गए। यह सब देखकर मैंने मन-ही-मन पूर्णरूप से निश्चय कर लिया था कि दुर्योधन मेरे द्वारा वध के योग्य है। श्रीकृष्ण! आप मित्रों के हित के लिए जो कुछ करना चाहते हैं, वह आपके लिए अद्भुत नहीं है। मृदु अथवा कठोर जिस उपाय से भी संभव है किसी तरह से अपना मुख्य कार्य सफल होना चाहिए। अथवा यदि आप अब कौरवों का वध ही श्रेष्ठ मानते हों तो वही शीघ्र-से-शीघ्र किया जाए। फिर इसके सिवा और किसी बात पर आपको विचार नहीं करना चाहिए। आप जानते हैं, इस पापात्मा दुर्योधन ने भरी सभा में द्रुपदकुमारी कृष्णा को कितना कष्ट पहुँचाया था, परंतु हमने उसके इस महान अपराध को भी चुपचाप सह लिया था। माधव! वही दुर्योधन अब पांडवों के साथ अच्छा बर्ताव करेगा, ऐसी बात मेरी बुद्धि में जँच नहीं रही है। उसके साथ संधि का सारा प्रयत्न ऊसर में बोये हुए बीज की भाँति व्यर्थ ही है। अत: वृष्णिकुलभूषण श्रीकृष्ण! आप पांडवों के लिए अब से करने योग्य जो उचित एवं हितकर कार्य मानते हों, वही यथासंभव शीघ्र आरंभ कीजिये।
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 78 श्लोक 1-19
- ↑ प्रारब्ध
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| दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना
| दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना
| हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत
| धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य
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| विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना
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| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
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भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
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| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
| भीष्म और परशुराम का युद्ध
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| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
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