- श्रीकृष्ण दुर्योधन को पांडवों के साथ संधि करने के लिए समझाते हैं तत्पश्चात उसे भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र भी समझाते हैं। द्रोणाचार्य कहते हैं कि- ‘तात! भगवान श्रीकृष्ण और शांतनुनन्दन भीष्म ने धर्म और अर्थ से युक्त बात कही है। तुम उसे स्वीकार करो।' अब भीष्म और द्रोण दुर्योधन को फिर से समझाते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत अध्याय 125 में निम्न प्रकार हुआ है[1]-
विषय सूची
भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! धृतराष्ट्र का कथन सुनकर युद्ध में जनसंहार की संभावना से समान रूप से दु:ख का अनुभव करने वाले भीष्म और द्रोणाचार्य ने गुरुजनों की आज्ञा का उल्लंघन करने वाले दुर्योधन से इस प्रकार कहा- ‘वत्स! जब तक श्रीकृष्ण और अर्जुन कवच धारण करके युद्ध के लिए उद्यत नहीं होते हैं, जब तक गांडीव धनुष घर में रखा हुआ है, जब तक धौम्य मुनि यज्ञाग्नि में शत्रुओं की सेना के विनाश के लिए आहुति नहीं डालते हैं और जब तक लज्जाशील महाधनुर्धर युधिष्ठिर तुम्हारी सेना पर क्रोधपूर्ण दृष्टि नहीं डालते हैं, तभी तक यह भावी जनसंहार शांत हो जाना चाहिए। जब तक कुंतीपुत्र महाधनुर्धर भीमसेन अपनी सेना के अग्रभाग में खड़े नहीं दिखाई देते हैं, तभी तक यह मारकाट का संकल्प शांत हो जाना चाहिए। दुर्योधन! जब तक हाथ में गदा लिए भीमसेन तुम्हारी सेना का संहार करते हुए युद्ध के विभिन्न मार्गों में विचरण नहीं कर रहे हैं, तभी तक तुम पाँडवों के साथ संधि कर लो। जब तक भीमसेन अपनी वीरघातिनी गदा के द्वारा समयानुसार पके हुए वृक्ष के फलों की भाँति संग्राम भूमि में गजारोही योद्धाओं के मस्तकों को काट-काटकर नहीं गिरा रहे हैं, तभी तक तुम्हारा युद्धविषयक संकल्प शांत हो जाना चाहिए। नकुल, सहदेव, द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न, विराट, शिखंडी तथा शिशुपाल का पुत्र धृष्टकेतु- ये अस्त्रविद्या में निपुण महान वीर कवच धारण करके महासागर में घुसे हुए ग्राहों की भाँति तुम्हारी सेना के भीतर जब तक प्रवेश नहीं करते हैं, तभी तक यह जनसंहार का संकल्प शांत हो जाना चाहिए। जब तक इन भूमिपालों के सुकुमार शरीरों पर गीध की पांखों से युक्त भयंकर बाण नहीं गिर रहे हैं, तभी तक युद्ध का संकल्प शांत हो जाये।
सामने आते ही लक्ष्य को मार गिराने वाले, शीघ्रतापूर्वक बाण चलाने और दूर तक का लक्ष्य बींधने वाले, अस्त्रविद्या के पारंगत महाधनुर्धर विपक्षी वीर जब तक तुम्हारे योद्धाओं के चन्दन और अगुरु से चर्चित तथा हार और निष्क धारण करने वाले वक्ष: स्थलों पर विशाल बाणों की वर्षा नहीं करते, तभी तक तुम्हें युद्ध का विचार त्याग देना चाहिए। हम चाहते हैं कि नृपश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर तुम्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम करते देख दोनों हाथों से पकड़ कर हृदय से लगा लें। भारतश्रेष्ठ! उत्तम दक्षिणा देने वाले युधिष्ठिर ध्वजा, अंकुश और पताकाओं के चिह्न से सुशोभित अपनी दाहिनी भुजा को जगत में शांति स्थापित करने के लिए तुम्हारे कंधे पर रखें तथा तुम्हें पास में बैठाकर रत्न एवं औषधियों से युक्त लाल हथेली वाले हाथ से तुम्हारी पीठ को धीरे-धीरे सहलाएँ। भरतभूषण! शालवृक्ष के तने के समान ऊँचे डीलडौल वाले महाबाहु भीमसेन भी शांति के लिए तुम्हें हृदय से लगाकर तुमसे मीठी-मीठी बातें करें। राजन! अर्जुन और नकुल-सहदेव- ये तीनों भाई तुम्हें प्रणाम करें और तुम उनके मस्तक सूंघकर उनके साथ प्रेम-पूर्वक वार्तालाप करो। तुम्हें अपने वीर भाई पांडवों के साथ मिला हुआ देख ये सब नरेश अपने नेत्रों से आनंद के आँसू बहाएँ। राजाओं की सभी राजधानियों में यह घोषणा करा दी जाये कि कौरव-पांडवों का सारा झगड़ा समाप्त होकर परस्पर प्रेमपूर्वक उनका समस्त कार्य सम्पन्न हो गया। फिर तुम और युधिष्ठिर परस्पर भ्रातभाव रखते हुए इस राज्य का समान रूप से उपभोग करो, तुम्हारी सारी चिंताएँ दूर हो जाएँ।[1]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
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| धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
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| संजय का धृतराष्ट्र को कृष्ण की महिमा बताना
| संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताना
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| धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान
भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना
| कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय
| कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना
| भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव
| कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना
| कृष्ण को भीमसेन का उत्तर
| कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना
| अर्जुन का कथन
| कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना
| नकुल का निवेदन
| सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति
| द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन
| कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान
| युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश
| कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन
| वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन
| कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार
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| दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना
| धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार
| विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना
| दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना
| दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना
| हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत
| धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य
| कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना
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| कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना
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| विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना
| कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना
| कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश
| कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण
| कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण
| परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन
| कण्व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| कण्व मुनि द्वारा मातलि का उपाख्यान आरम्भ करना
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| नारद द्वारा पाताललोक का प्रदर्शन
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| नारद द्वारा गरुड़लोक तथा गरुड़ की संतानों का वर्णन
| नारद द्वारा सुरभि तथा उसकी संतानों का वर्णन
| नारद द्वारा नागलोक के नागों का वर्णन
| मातलि का नागकुमार सुमुख के साथ पुत्री के विवाह का निश्चय
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| विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह
| विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन
| दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना
| नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन
| गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन
| गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना
| गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना
| गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट
| गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन
| ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना
| हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना
| दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना
| उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना
| गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना
| ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना
| ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना
| ययाति का स्वर्गलोक से पतन
| ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास
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| नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना
| धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
| दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय
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| कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह
| गांधारी का दुर्योधन को समझाना
| सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़
| धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना
| कृष्ण का विश्वरूप
| कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान
| कुंती का पांडवों के लिये संदेश
| कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ
| विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना
| विदुला और उसके पुत्र का संवाद
| विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश
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| कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना
| कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना
| कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार
| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना
| पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना
| पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
| पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना
| धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति
रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन
| कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद
| भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन
| पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा
| पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन
| भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन
अम्बोपाख्यानपर्व
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| होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप
| अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप
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| परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप
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| परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना
| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
| भीष्म और परशुराम का युद्ध
| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
| भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
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| अम्बा की कठोर तपस्या
| अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश
| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
| शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप
| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
| स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप
| भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
| भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन
| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
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