भीष्म और परशुराम का युद्ध

भीष्म और परशुराम जी के बीच घोर युद्ध चल रहा हैं जहाँ दोनों एक दूसरे पर अपने-अपने शस्त्रों का प्रयोग करते हैं जहाँ कभी परशुराम जी मूर्च्छित हो जाते हैं और कभी भीष्म, परंतु फिर भी दोनों के बीच युद्ध हो रहा हैं और ये युद्ध होते-होते तेईस दिन बीत गये है, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में अम्बोपाख्‍यान पर्व के अंतर्गत 181वें अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]


भीष्म और परशुराम जी के बीच युद्ध

भीष्‍मजी कहते हैं- भरतश्रेष्‍ठ! दूसरे दिन परशुराम जी के साथ भेंट होने पर पुन: अत्यन्त भयंकर युद्ध प्रारम्भ हुआ। फिर तो दिव्यास्त्रों के ज्ञाता, शूरवीर एवं धर्मात्मा भगवान परशुराम जी प्रतिदिन अनेक प्रकार के अलौकिक अस्त्रों का प्रयोग करने लगे। भारत! उस तुमुल युद्ध में अपने दुस्त्यज प्राणों की परवा न करके मैंने उनके सभी अस्त्रों का विद्या त‍क अस्त्रों द्वारा संहार कर डाला। भरतनन्दन! इस प्रकार बार-बार मेरे अस्त्रों द्वारा अपने अस्त्रों के विनष्‍ट होने पर महातेजस्वी परशुराम जी उस युद्ध में प्राणों का मोह छोड़कर अत्यन्त कुपित हो उठे। इस प्रकार अपने अस्त्रों का अवरोध होने पर जमदग्निनन्दन महात्मा परशुराम ने काल की छोड़ी हुई प्रज्वलित उल्का-के समान एक भयंकर शक्ति छोड़ी, जिसका अग्रभाग उद्दीप्त हो रहा था। वह शक्ति अपने तेज से सम्पूर्ण लोक को व्याप्त किये हुए थी।

तब मैंने प्रलयकाल के सूर्य की भाँति प्रज्वलित होने वाली उस देदीप्यमान शक्ति को अपनी ओर आती देख अनेक बाणों द्वारा उसके तीन टुकडे़ करके उसे भूमि पर गिरा दिया। फिर तो पवित्र सुगन्ध से युक्त मन्द-मन्द वायु चलने लगी। उस शक्ति के कट जाने पर परशुराम जी क्रोध से जल उठे तथा उन्होंने दूसरी-दूसरी भयंकर बारह शक्तियां और छोड़ीं। भारत! वे इतनी तेजस्विनी तथा शीघ्रगामिनी थीं कि उनके स्वरूप का वर्णन करना असम्भव है। प्रलयकाल के बारह सूर्यों के समान भयंकर तेज से प्रज्वलित अनेक रूपवाली तथा अग्नि की प्रचण्‍ड ज्वालाओं के समान धधकती हुई उन शक्तियों को सब ओर से आती देख मैं अत्यन्त विह्वल हो गया। राजन! तत्पश्‍चात वहाँ फैले हुए बाणमय जाल को देखकर मैंने अपने बाण समूहों से उसे छिन्न-भिन्न कर डाला और उस रणभूमि में बारह सायकों का प्रयोग किया, जिनसे उन भयंकर शक्तियों को भी व्यर्थ कर दिया। राजन! तत्पश्‍चात महात्मा जमदग्निनन्दन परशुराम ने स्वर्णमय दण्‍ड से विभूषित और भी बहुत-सी भयानक शक्तियां चलायीं, जो विचित्र दिखायी देती थीं। उनके ऊपर सोने के पत्र जडे़ हुए थे और वे जलती हुई बड़ी-बड़ी उल्काओं के समान प्रतीत होती थीं। नरेन्द्र! उन भयंकर शक्तियों को भी मैंने ढाल से रोककर तलवार से रणभूमि में काट गिराया। तत्पश्‍चात परशुराम जी के दिव्य घोड़ों तथा सारथि पर मैंने दिव्य बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। केंचुलि से छूटकर निकले हुए सर्पों के समान आकृति वाली उन सुवर्णजटित विचित्र शक्तियों को कटी हुई देख हैहयराज का विनाश करने वाले महात्मा परशुराम जी ने कुपित होकर पुन: अपना दिव्य अस्त्र प्रकट किया। फिर तो टिड्डियों की पंक्तियों के समान प्रज्वलित एवं भयंकर बाणों के समूह प्रकट होने लगे। इस प्रकार उन्होंने मेरे शरीर, रथ, सारथि और घोड़ों को सर्वथा आच्छादित कर दिया। राजन! मेरा रथ चारों ओर से उनके बाणों द्वारा व्याप्त हो रहा था। घोड़ों और सारथि की भी यही दशा थी। युग तथा ईषा दण्‍ड को भी उन्होंने उसी प्रकार बाणविद्ध कर रखा था और रथ का धुरा उनके बाणों से कटकर टूक-टूक हो गया था।

जब उनकी बाण-वर्षा समाप्त हुई, तब मैंने भी बदले में गुरुदेव पर बाणसमूहों की बौछार आरम्भ कर दी। वे ब्रह्मराशि महात्मा मेरे बाणों से क्षत-विक्षत होकर अपने शरीर से अधिकाधिक रक्त की धारा बहाने लगे। जिस प्रकार परशुराम जी मेरे सायक समूहों से संतप्त थे, उसी प्रकार मैं भी उनके बाणों से अत्यन्त घायल हो रहा था। तदनन्तर सायंकाल में जब सूर्यदेव अस्ताचल को चले गये, वह युद्ध बंद हो गया।[1]

पुन: दोनों के बीच युद्ध प्रारम्भ

भीष्‍मजी कहते हैं- राजेन्द्र! तदनन्तर प्रात:काल जब सूर्यदेव उदित होकर प्रकाश में आ गये, उस समय मेरे साथ परशुराम जी का युद्ध पुन: प्रारम्भ हुआ। तत्पश्‍चात योद्धाओं में श्रेष्‍ठ परशुराम जी स्थिर रथ पर खडे़ हो जैसे मेघ पर्वत पर जल की बौछार करता है, उसी प्रकार मेरे ऊपर बाण समूहों की वर्षा करने लगे। उस समय मेरा प्रिय सुहृद सारथि बाण वर्षा से पीड़ित हो मेरे मन को विषाद में डालता हुआ रथ की बैठक से नीचे गिर गया। मेरे सारथि को अत्यन्त मोह छा गया था। वह बाणों के आघात से पृथ्‍वी पर गिरा और अचेत हो गया। राजेन्द्र! परशुराम जी के बाणों से अत्यन्त पीड़ित होने के कारण दो ही घड़ी में सूत ने प्राण त्याग दिये। उस समय मेरे मन में बड़ा भय समा गया।[2]


उस सारथि के मारे जाने पर मैं असावधान मन से परशुराम जी के बाणों को काट रहा था! इतने ही में परशुराम जी ने मुझ पर मृत्यु के समान भयंकर बाण छोड़ा। उस समय मैं सारथि की मृत्यु के कारण व्याकुल था तो भी भृगुनन्दन परशुराम ने अपने सुदृढ़ धनुष को जोर-जोर से खींचकर मुझ पर बाण से गहरा आघात किया। राजेन्द्र! वह रक्त पीने वाला बाण मेरी दोनों भुजाओं के बीच वक्ष:स्थल में चोट पहुँचाकर मुझे साथ लिये-दिये पृथ्‍वी पर जा गिरा। भरतश्रेष्‍ठ! उस समय मुझे मारा गया जानकर परशुराम जी मेघ के समान गम्भीर स्वर से गर्जना करने लगे। उनके शरीर में बार-बार हर्ष जनित रोमाञ्च होने लगा। राजन! इस प्रकार मेरे धराशायी होने पर परशुराम जी को बड़ी प्रसन्नता हई। उन्होंने अपने अनुयायियों के साथ महान कोलाहल मचाया।

कुरुवंशी क्षत्रियगण द्वारा भीष्म की सहायता करना

वहाँ मेरे पार्श्‍व भाग में जो कुरुवंशी क्षत्रियगण खडे़ थे तथा जो लोग वहाँ युद्ध देखने की इच्छा से आये थे, उन सबको मेरे गिर जाने पर बड़ा दु:ख हुआ। राजसिंह! वहाँ गिरते समय मैंने देखा कि सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी आठ ब्राह्मण आये और संग्राम भूमि में मुझे सब ओर से घेरकर अपनी भुजाओं पर ही मेरे शरीर को धारण करके खडे़ हो गये। उन ब्राह्मणों से सुरक्षित होने के कारण मुझे धरती का स्पर्श नहीं करना पड़ा। मेरे सगे भाई-बन्धुओं की भाँति उन ब्राह्मणों ने मुझे आकाश में ही रोक लिया था। राजन! आकाश में मैं सांस लेता-सा ठ‍हर गया था। उस समय ब्राह्मणों ने मुझ पर जल की बूंदे छिड़क दीं। फिर वे मुझे पकड़कर बोले। उन सबने एक साथ ही बार-बार कहा- ‘तुम्हारा कल्याण हो। तुम भयभीत न हो।’

उनके वचनामृतों से तृप्त होकर मैं सहसा उठकर खड़ा हो गया और देखा, मेरे रथ पर सारथि के स्थान में सरिताओं में श्रेष्‍ठ माता गंगा बैठी हुई हैं। कौरवराज! उस युद्ध में महानदी माता गंगा ने मेरे घोड़ों की बागडोर पकड़ रखी थी। तब मैं माता के चरणों का स्पर्श करके और पितरों के उद्देश्‍य से भी मस्तक नवाकर उस रथ पर जा बैठा। माता ने मेरे रथ, घोड़ों तथा अन्यान्य उपकरणों की रक्षा की। तब मैंने हाथ जोड़कर पुन: माता को विदा कर दिया।

पुन: भीष्म का परशुराम जी से युद्ध करना

भारत! तदनन्तर स्वयं ही उन वायु के समान वेगशाली घोड़ों को काबू में करके मैं जमदग्निनन्दन परशुराम जी के साथ युद्ध करने लगा। उस समय दिन प्राय: समाप्त हो चला था। भरतश्रेष्‍ठ! उस समरभूमि में मैंने परशुराम जी की ओर एक प्रबल एवं वेगवान बाण चलाया, जो हृदय को विदीर्ण कर देने वाला था।मेरे उस बाण से अत्यन्त पीड़ित हो परशुराम जी ने मूर्छा के वशीभूत होकर धनुष छोड़ धरती पर घुटने टेक दिये। अनेक सहस्र ब्राह्मणों को बहुत दान करने वाले परशुराम जी के धराशायी होने पर अधिकाधिक रक्त की वर्षा करते हुए बादलों ने आकाश को ढक लिया। बिजली की गड़गडाहट के समान सैकड़ों उल्कापात होने लगे। भूकम्प आ गया। अपनी किरणों से उद्भासित होने वाले सूर्यदेव को राहु ने सब ओर से सहसा घेर लिया।[2] वायु तीव्र वेग से बहने लगी, धरती डोलने लगी, गीध, कौवे और कंक प्रसन्नतापूर्वक सब ओर उड़ने लगे। दिशाओं में दाह-सा होने लगा, गीदड़ बार-बार भयंकर बोली बोलने लगे, दुन्दुभियां बिना बजाये ही जोर-जोर से बजने लगीं।

इस प्रकार महात्मा परशुराम के मूर्च्छित होकर पृथ्‍वी पर गिरते ही ये समस्त उत्पातसूचक अत्यन्त भयंकर अपशकुन होने लगे। कुरुनन्दन! इसी समय परशुराम जी सहसा उठकर क्रोध से मूर्च्छित एवं विह्वल हो पुन: युद्ध के लिये मेरे समीप आये। परशुराम ताड़ के समान विशाल धनुष लिये हुए थे। जब वे मेरे लिये बाण उठाने लगे, तब दयालु महर्षियों ने उन्हें रोक दिया। वह बाण कालाग्नि के समान भयंकर था। अमेय स्वरूप भार्गव ने कुपित होने पर भी मुनियों के कहने से उस बाण का उपसंहार कर लिया। तदनन्तर मन्द किरणों के पुञ्ज से प्रकाशित सूर्यदेव युद्धभूमि की उड़ती हुई धुलों से आच्छादित हो अस्ताचल को चले गये। रात्रि आ गयी और सुखद शीतल वायु चलने लगी। उस समय हम दोनों ने युद्ध समाप्त कर दिया। राजन! इस प्रकार प्रतिदिन संध्‍या के समय युद्ध बंद हो जाता और प्रात:काल सूर्योदय होने पर पुन: अत्यन्त भयंकर संग्राम छिड़ जाता था। इस प्रकार हम दोनों के युद्ध करते-करते तेईस दिन बीत गये।[3]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 181 श्लोक 1-16
  2. 2.0 2.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 182 श्लोक 1-22
  3. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 182 श्लोक 23-30

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सैन्यनिर्याणपर्व
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उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

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