- महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत 73वें अध्याय में 'कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना' की कथा हैं, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना
युधिष्ठिर द्वारा युद्ध न करने पर श्रीकृष्ण बोले– राजन! मैंने आप की भी बातें सुनी हैं। कौरवों का क्या अभिप्राय है, वह सब मैं जानता हूँ और आपका जो विचार है, उससे भी मैं अपरिचित नहीं हूँ। आपकी बुद्धि धर्म में स्थित है और उनकी बुद्धि ने शत्रुता का आश्रय ले रखा है। आप तो बिना युद्ध किए जो कुछ मिल जाये, उसी को बहुत समझेंगे। परंतु महाराज! यह क्षत्रिय का नैष्ठिक[2] कर्म नहीं है। सभी आश्रमों के श्रेष्ठ पुरुषों का यह कथन है कि क्षत्रिय को भीख नहीं मांगनी चाहिए। उसके लिए विधाता ने यही सनातन कर्तव्य बताया है कि वह संग्राम में विजय प्राप्त करे अथवा वहीं प्राण दे दें। यही क्षत्रिय का स्वधर्म है। दीनता अथवा कायरता उसके लिए प्रशंसा की वस्तु नहीं है। महाबाहु युधिष्ठिर! दीनता का आश्रय लेने से क्षत्रिय की जीविका नहीं चल सकती। शत्रुओं को संताप देने वाले महाराज! अब पराक्रम दिखाइये और शत्रुओं का संहार कीजिये।
राजन धृतराष्ट्र के पुत्र बड़े लोभी हैं। इधर उन्होंने बहुत से मित्र राजाओं का संग्रह कर लिया है और उनके साथ दीर्घ काल तक रहकर अपने प्रति उनका स्नेह भी बढ़ा लिया है। शिक्षा और अभ्यास आदि के द्वारा भी उन्होंने विशेष शक्ति का संचय कर लिया है। अत: प्रजानाथ! ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिससे वे आपको आधा राज्य देकर आपके प्रति समता[3] स्थापित करें। भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदि उनके पक्ष में हैं, इसलिए वे अपने को आप से अधिक बलवान समझते हैं। अत: शत्रुदमन राजन! जब तक आप इनके साथ नरमी का बर्ताव करेंगे, तब तक ये आपके राज्य का अपहरण करने की ही चेष्टा करेंगे। शत्रुमर्दन नरेश! आप यह न समझें कि धृतराष्ट्र के पुत्र आप पर कृपा करके या अपने को दीन-दुर्बल मानकर अथवा धर्म एवं अर्थ की ओर दृष्टि रखकर आपका मनोरथ पूर्ण कर देंगे। पाण्डुनन्दन! कौरवों के संधि न करने का सबसे बड़ा कारण या प्रमाण तो यही है कि उन्होंने आपको कौपीन धारण कराकर तथा उतने दीर्घकाल के लिए वनवास का दुष्कर कष्ट देकर भी कभी इसके लिए पश्चाताप नहीं किया। राजन! आप दानशील, कोमल स्वभाव, मन और इंद्रियों को वश में रखने वाले, स्वभावत: धर्म परायण तथा सबके हैं, तो भी क्रूर दुर्योधन ने उस समय पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, बुद्धिमान विदुर, साधु, ब्राह्मण, राजा धृतराष्ट्र, नगर निवासी जनसमुदाय तथा कुरुकुल के सभी श्रेष्ठ पुरुषों के देखते-देखते आपको जुए में छल से ठग लिया और आपने उस कुकृत्य के लिए वह अब तक लज्जा का अनुभव नहीं करता है राजन! ऐसे कुटिल स्वभाव और खोटे आचरण वाले दुर्योधन के प्रति आप प्रेम न दिखावें।
भारत! धृतराष्ट्र के वे पुत्र तो सभी लोगों के वध्य हैं फिर आप उनका वध करें, इसके लिए तो कहना ही क्या है? क्या आप वह दिन भूल गए, जबकि दुर्योधन ने भाइयों सहित आपको अपने अनुचित वचनों द्वारा मार्मिक पीड़ा पहुँचाई थी। वह अत्यंत हर्ष से फूलकर अपनी मिथ्या प्रशंसा करता हुआ अपने भाइयों के साथ कहता था– 'अब पांडवों के पास इस संसार में 'अपनी' कहने के लिए इतनी-सी भी कोई वस्तु नहीं रह गई है। केवल नाम और गोत्र बचा है, परंतु वह भी शेष नहीं रहेगा।[1] दीर्घकाल के पश्चात् इनकी भारी पराजय होगी। इनकी स्वाभाविक शूरता-वीरता आदि नष्ट हो जाएगी और ये मेरे पास ही अपने प्राण त्याग करेंगे। उन दिनों जब जूए का खेल चल रहा था, अत्यंत दुरात्मा पापी दु:शासन अनाथ की भाँति रोती कलपती हुई महारानी द्रौपदी को उनके केश पकड़ कर राजसभा में घसीट लाया और भीष्म तथा द्रोणाचार्य आदि के समक्ष उसने उनका उपहास करते हुए बारंबार उसे 'गाय' कहकर पुकारा। यद्यपि आपके भाई भयंकर पराक्रम प्रकट करने में समर्थ थे, तथापि आपने इन्हें रोक दिया, इसलिए धर्म बंधन में बंधे होने के कारण ये उस समय उस अन्याय का कुछ भी प्रतीकार न कर सके। जब आप वन की ओर जाने लगे, उस समय भी वह बंधु-बांधवों के बीच में ऊपर कही हुई तथा और भी बहुत-सी कठोर बातें कहकर अपनी प्रशंसा करता रहा। जो लोग वहाँ बुलाये गए थे, वे सभी नरेश आपको निरपराध देखकर रोते और आँसू बहाते हुए रुँधे हुए कंठ से उस समय चुपचाप सभा में बैठे रहे ब्राह्मणों सहित उन राजाओं ने वहाँ दुर्योधन की प्रशंसा नहीं की। उस समय सभी सभासद उसकी निंदा ही कर रहे थे।
शत्रुसूदन! कुलीन पुरुष की निंदा हो या वध इनमें से वध ही उसके लिए अत्यंत गुणकारक है, निंदा नहीं। निंदा तो जीवन को घृणित बना देती है। महाराज! जब इस भूमंडल के सभी राजाओं ने निंदा की, उसी समय उस निर्लज्ज दुर्योधन की एक प्रकार से मृत्यु हो गई। जिसका चरित्र इतना गिरा हुआ है, उसका वध करना तो बहुत साधारण कार्य है। जिसकी जड़ कट गयी हो और जो गोल वेदी के आधार पर खड़ा हो, उस वृक्ष की भाँति दुर्योधन के भी धराशायी होने में अब अधिक विलंब नहीं है। खोटी बुद्धिवाला दुराचारी दुर्योधन दुष्ट सर्प की भाँति सब लोगों के लिए वध्य है। शत्रुओं का नाश करने वाले महाराज! आप दुविधा में न पड़ें, इस दुष्ट को अवश्य मार डालें। निष्पाप नरेश! आप जो पितृतुल्य धृतराष्ट्र तथा पितामह भीष्म के प्रति प्रणाम एवं नम्रतापूर्ण बर्ताव करते हैं, वह सर्वथा आपके योग्य हैं। मैं भी इसे पसंद करता हूँ। राजन! दुर्योधन के संबंध में जिन लोगों का मन दुविधा में है जो लोग उसके अच्छे या बुरे होने का निर्णय नहीं कर सके हैं, उन सब लोगों का संदेह मैं वहाँ जाकर दूर कर दूँगा।
मैं राजसभा में जुटे हुए भूपालों की मंडली में आपके सर्वसाधारण गुणों का वर्णन और दुर्योधन के दोषों तथा अपराधों का उद्घाटन करूँगा। मेरे मुख से धर्म और अर्थ से संयुक्त हितकर वचन सुनकर नाना जनपदों के स्वामी समस्त भूपाल आपके विषय में यह निश्चित रूप से समझ लेंगे कि युधिष्ठिर धर्मात्मा तथा सत्यवादी हैं और दुर्योधन के संबंध में भी उन्हें यह निश्चय हो जाएगा कि उसने लोभ से प्रेरित होकर ही सारा अनुचित बर्ताव किया। मैं वहाँ आये हुए चारों वर्णों के आबालवृद्ध जनसमुदाय को अपनाकर उनके सामने तथा पुरवासियों और देशवासियों के समक्ष भी इस दुर्योधन की निंदा करूंगा। वहाँ शांति के लिए याचना करने पर आप अधर्म के भी भागी न होंगे। सब राजा कौरवों की तथा धृतराष्ट्र की ही निंदा करेंगे। सब लोग दुर्योधन को अन्यायी समझकर त्याग देंगे और वह निंदनीय होने के कारण नष्टप्राय हो जाएगा। उस दशा में आपका दूसरा कौन-सा कार्य शेष रह जाता है? जिसे सम्पन्न किया जाए।[4] वहाँ पहुँच कर आपके स्वार्थ की सिद्धि में तनिक भी त्रुटि न आने देते हुए मैं समस्त कौरवों से संधि-स्थापन के लिए प्रयत्न करूंगा और उनकी चेष्टाओं पर दृष्टि रखूँगा। भारत! मैं जाकर कौरवों की युद्ध विषयक तैयारी की बातें जान-सुनकर आपकी विजय के लिए पुन: यहाँ लौट आऊँगा। मुझे तो शत्रुओं के साथ सर्वथा युद्ध होने की संभावना हो रही है, क्योंकि मेरे सामने ऐसे ही लक्षण[5]प्रकट हो रहे हैं। मृग [6] और पक्षी भयंकर शब्द कर रहे हैं। प्रदोष काल में प्रमुख हाथियों और घोड़ों के समुदाय में बड़ी भयानक आकृतियाँ प्रकट होती हैं। इसी प्रकार अग्निदेव भी नाना प्रकार के भयजनक वर्णों [7] को धारण करते हैं। यदि मनुष्यलोक का संहार करने वाली अत्यंत भयंकर मृत्यु इनको नहीं प्राप्त हुई होती, तो ऐसी बातें देखने में नहीं आतीं। अत: नरेंद्र! आपके समस्त योद्धा युद्ध के लिए दृढ़ निश्चय करके भाँति-भाँति के शस्त्र, यंत्र, कवच, रथ, हाथी और घोड़ों को सुसज्जित कर लें तथा उन हाथियों, घोड़ों, एवं रथों पर सवार होकर युद्ध करने के निमित्त सदा तैयार रहें। इसके सिवा आपको युद्धोपयोगी जिन समस्त वस्तुओं का संग्रह करना है उन सबका भी आप संग्रह कर लीजिये। पाण्डवप्रवर! नरेश्वर! यह निश्चय मानिये, आपके पास पहले जो समृद्धिशाली राज्य-वैभव था और जिसे आपने जूए में खो दिया था, वह सारा राज्य अब दुर्योधन अपने जीते-जी आपको कभी नहीं दे सकता।[8]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 73 श्लोक 1-16
- ↑ स्वाभाविक
- ↑ संधि
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 73 श्लोक 17-34
- ↑ शकुन
- ↑ पशु
- ↑ रंगों
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 73 श्लोक 35-42
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| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
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| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
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| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
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| पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना
| पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
| पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना
| धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति
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भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
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| कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन
| कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद
| भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन
| पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा
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| भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन
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| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
| भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
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