- सम्पूर्ण पांडव सेना द्वारा कुरुक्षेत्र में पहुँचकर श्रीकृष्ण ने सभी राजाओं के लिए अलग-अलग शिविर निर्माण करवाए और सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र उपलब्ध कराये। पांडवों द्वारा शिविर व पड़ाव डालने की खबर सुनकर अन्य राजा भी अपनी सेना को साथ लिए अस्त्र-शस्त्र से सम्पन्न होकर उनकी सेना में सम्मिलित हो गए। जब दुर्योधन ये बात सुनकर अपनी सेना को सुसज्जित हो कुरुक्षेत्र में शिविर बनाने का आदेश देता है, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में सैन्यनिर्याण पर्व के अंतर्गत अध्याय 153 में निम्न प्रकार हुआ है[1]-
विषय सूची
दुर्योधन का सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश देना
जनमेजय ने पूछा- मुने! दुर्योधन ने जब यह सुना कि राजा युधिष्ठिर युद्ध की इच्छा से सेनाओं के साथ यात्रा करके भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित हो कुरुक्षेत्र में पहुँच गये और वहाँ सेना का पड़ाव डाले बैठे हैं, पुत्रों सहित राजा विराट और द्रुपद भी उनके साथ हैं, केकयराजकुमार, वृष्णिवंशी योद्धा तथा सैकड़ों भूपाल उन्हें घेरे रहते हैं तथा वे आदित्यों सहित घिरे हुए देवराज इन्द्र की भाँति अनेक महारथी योद्धाओं द्वारा सुरक्षित हैं, तब उसने क्या किया। महामते! कुरुक्षेत्र के उस भयंकर समारोह में जो कुछ हुआ हो वह सब में विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ। तपोधन! पाण्डव, भगवान श्रीकृष्ण, विराट, द्रुपद, पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न, महारथी शिखण्डी तथा देवताओं के लिये भी दुर्जय महापराक्रमी युधामन्यु ये सब तो संग्राम में एकत्र होने पर इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं को भी पीड़ित कर सकते हैं; अत: वहाँ कौरवों तथा पाण्डवों ने जो-जो कर्म किया था वह सब विस्तारपूर्वक सुनने की मेरी इच्छा है।
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! भगवान श्रीकृष्ण के चले जाने पर उस समय राजा दुर्योधन ने कर्ण, दु:शासन और शकुनि से इस प्रकार कहा- श्रीकृष्ण यहाँ से कृतकार्य होकर नहीं गये हैं। इसके लिये वे क्रोध में भरकर पाण्डवों को निश्चय ही युद्ध के लिये उत्तेजित करेंगे, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। वास्तव में श्रीकृष्ण यही चाहते हैं कि पाण्डवों के साथ मेरा युद्ध हो। भीमसेन और अर्जुन- ये दोनों भाई तो श्रीकृष्ण के मत में रहने वाले हैं। अजातशत्रु युधिष्ठिर भी अधिकतर भीमसेन के वश में रहा करते हैं। इसके सिवा मैंने पहले सब भाइयों सहित उनका तिरस्कार भी किया है। विराट और द्रुपद तो मेरे साथ पहले से ही बैर रखते हैं। वे दोनों पाण्डव-सेना के संचालक तथा श्रीकृष्ण की आज्ञा के अधीन रहने वाले हैं। अत: अब हम लोगों का पाण्डवों के साथ होने वाला यह युद्ध बड़ा ही भयंकर और रोमांचकारी होगा। इसलिये राजाओं! आप सब लोग आलस्य छोड़कर युद्ध की सारी तैयारी करें। भूमिपालों! आप कुरुक्षेत्र में सैकड़ों और हजारों की संख्या में ऐसे शिविर तैयार करावें, जिनमें अपनी आवश्यकता के अनुसार पर्याप्त अवकाश हो तथा शत्रुलोग जिन पर अधिकार न कर सकें। उनमें पास ही जल और काष्ठ आदि मिलने की सुविधाएं हों। उनमें ऐसे मार्ग होने चाहिए जिनके द्वारा खाद्य सामग्री सुविधा से लायी जा सके और शत्रुलोग उसे नष्ट न कर सकें तथा उनके चारों तरफ किलेबन्दी कर देनी चाहिए। उन शिविरों को नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से भरपूर तथा ध्वज-पताकाओं से सुशोभित रखना चाहिये। शिविरों का जो नगर बसाया जाये, उससे बाहर अनेक सीधे तथा समतल मार्ग उन शिविरों में जाने के लिये बनाये जायें। आज ही यह घोषणा करा दी जाये कि कल सवेरे ही युद्ध के लिये प्रस्थान करना है। इसमें विलम्ब नहीं होना चाहिये।
कौरव सैनिकों की रणयात्रा के लिये तैयारी
दुर्योधन यह आदेश सुनकर बहुत अच्छा- ऐसा ही होगा यह प्रतिज्ञा करके महामना कर्ण आदि ने अत्यन्त प्रसन्न होकर सवेरा होते ही राजाओं के निवास के लिये शिविर बनवाने आरम्भ कर दिये। तदनन्तर वहाँ आये हुए सब नरेश राजा दुर्योधन की यह आशा सुनकर रोषावेश से परिपूर्ण हो चंदन और अगुरु से चर्चित तथा सोने के भुजबंदों से प्रकाशित अपनी परिघ के समान मोटी भुजाओं का धीरे-धीरे स्पर्श करते हुए बहुमूल्य आसनों से उठकर खड़े हो गये। उन्होंने अपने कमलसदृश करों से मस्तक पर पगड़ी बाँध ली; फिर धोती, चादर और सब प्रकार के आभूषण धारण कर लिये।[1] श्रेष्ठ रथी अपने रथों को, अश्व संचालन की कला में कुशल योद्धा घोड़ों को और हस्तशिक्षा में निपुण सैनिक हाथियों को सुसज्जित करने लगे। उन्होंने सोने के बने हुए बहुत से विचित्र कवच तथा सब प्रकार के विभिन्न अनेक अस्त्र-शस्त्र धारण कर लिये। पैदल योद्धाओं ने भी अपने अंगों में सुवर्णजटित कवच तथा भाँति-भाँति के अनेक अस्त्र-शस्त्र धारण कर लिये।
जनमेजय! दुर्योधन का वह हस्तिनापुर नगर मानो वहाँ कोई उत्सव हो रहा हो, इस प्रकार समृद्ध और हर्षोत्फुल्ल मनुष्यों से भर गया था, इससे वहाँ बड़ी हलचल मच गयी थी। राजन! जैसे चन्द्रोदयकाल में समुद्र उत्ताल तरगों से व्याप्त हो जाता है, उसी प्रकार के उदय से अत्यन्त उल्लासित दिखायी देने लगा। सब ओर घूमता हुआ जनसमुदाय ही वहाँ जल में उठने वाली भँवरों के समान जान पड़ता था। रथ, हाथी और घोडे़ उसमें मछली के समान प्रतीत होते थे। शंख और दुन्दुभियों की ध्वनि ही उस कुरुराजरूपी समुद्र की गर्जना थी। खजानों का संग्रह ही रत्नराशि का प्रतिनिधित्व कर रहा था। योद्धाओं के विचित्र आभूषण और कवच ही उस समुद्र की उठती हुई तरंगों के समान जान पड़ते थे। चमकीले शस्त्र ही निर्मल फेन से प्रतीत होते थे। महलों की पंक्तियाँ ही तटवर्ती पर्वत-सी जान पड़ती थी। सड़कों पर स्थित दुकानें ही मानो गुफाएँ थीं।[2]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
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| दुर्योधन की आत्मप्रशंसा
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| कर्ण द्वारा कौरव सभा त्यागकर जाना
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| विदुर का दम की महिमा बताना
| विदुर का धृतराष्ट्र से कौटुम्बिक कलह से हानि बताना
| धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| संजय का धृतराष्ट्र को अर्जुन का संदेश सुनाना
| धृतराष्ट्र के पास व्यास और गांधारी का आगमन
| संजय का धृतराष्ट्र को कृष्ण की महिमा बताना
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| कृष्ण के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन
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भगवद्यान पर्व
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| भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव
| कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना
| कृष्ण को भीमसेन का उत्तर
| कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना
| अर्जुन का कथन
| कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना
| नकुल का निवेदन
| सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति
| द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन
| कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान
| युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश
| कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन
| वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन
| कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार
| कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना
| दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना
| धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार
| विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना
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| दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना
| हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत
| धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य
| कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना
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| कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना
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| गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना
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| हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना
| दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना
| उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना
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| ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना
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| ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास
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| स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत
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| धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
| दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय
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| कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह
| गांधारी का दुर्योधन को समझाना
| सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़
| धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना
| कृष्ण का विश्वरूप
| कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान
| कुंती का पांडवों के लिये संदेश
| कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ
| विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना
| विदुला और उसके पुत्र का संवाद
| विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश
| विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना
| कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना
| कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना
| कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार
| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना
| पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना
| पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
| पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना
| धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति
रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन
| कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद
| भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन
| पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा
| पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन
| भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन
अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण
| अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना
| अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग
| अम्बा और शैखावत्य संवाद
| होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप
| अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप
| अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह
| परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप
| परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना
| परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना
| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
| भीष्म और परशुराम का युद्ध
| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
| भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
| अम्बा की कठोर तपस्या
| अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश
| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
| शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप
| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
| स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप
| भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
| भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन
| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
| कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान
| पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान
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