- महाभारत उद्योग पर्व में सनत्सुजात पर्व के अंतर्गत 46वें अध्याय में 'योगीजनों द्वारा परमात्मा के साक्षात्कार का प्रतिपादन' का वर्णन है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
सनत्सुजात द्वारा योगीजनों के साक्षात्कार का वर्णन
सनत्सुजातजी कहते हैं- राजन! जो शुद्ध ब्रह्म है, वह महान ज्योतिर्मय, देदीप्यमान एवं यश रूप है। सब देवता उसी की उपासना करते हैं। उसी के प्रकाश से सूर्य प्रकाशित होते हैं, उस सनातन भगवान का योगीजन साक्षात्कार करते हैं। शुद्ध सच्चिदानंद परब्रह्म से हिरण्य गर्भ की उत्पत्ति होती है तथा उसी से वह वृद्धि को प्राप्त होता है। वह शुद्ध ज्योतिर्मय ब्रह्म की सूर्यादि सम्पूर्ण ज्योतियों के भीतर स्थित होकर सबको प्रकाशित कर रहा है और तपा रहा है। वह स्वयं सब प्रकार से अतप्त और स्वयंप्रकाश है, उसी सनातन भगवान का योगीजन साक्षात्कार करते हैं। जल की भाँति एक रस परब्रह्म परमात्मा में स्थित पांच सूक्ष्म महाभूतों से अत्यंत स्थूल पाञ्च भौतिक शरीर के हृदयाकाश में दो देव-ईश्र्वर और जीव उसको आश्रय बनाकर रहते हैं। सबको उत्पन्न करने वाला सर्व व्यापी परमात्मा सदैव जाग्रत रहता है। वहीं इन दोनों को तथा पृथ्वी और द्युलोक को भी धारण करता है। उस सनातन भगवान का योगीजन साक्षात्कार करते हैं। उक्त दोनों देवताओं को, पृथ्वी और आकाश को, सम्पूर्ण दिशाओं को तथा समस्त लोक समुदाय को वह शुद्ध ब्रह्म ही धारण करता है। उसी परब्रह्म से दिशाएं प्रकट हुई हैं, उसी से सरिताएं होती हैं तथा उसी से बड़े-बड़े समुद्र प्रकट हुए हैं। उस सनातन भगवान को योगीजन साक्षात्कार करते हैं।
जो इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि का संघात-शरीर विनाशशील है, जिसके कर्म अपने-आप नष्ट होने वाले नहीं हैं, ऐसे इस शरीररूप रथ के चक्र की भाँति इस घुमाने वाले कर्म संस्कार से युक्त मन में जुते हुए इन्द्रिय रूप घोड़े उस हृदय काश में स्थित ज्ञान स्वरूप दिव्य अविनाशी जीवात्मा को जिस सनातन परमेश्र्वर के निकट ले जाते हैं, उस सनातन भगवान का योगी जन साक्षात्कार करते हैं [2] उस परमात्मा का स्वरूप किसी दूसरे की तुलना में नहीं आ सकत उसे कोई चर्मचक्षुओं से नहीं देख सकता। जो निश्चयात्मिका बुद्धि से, मन से और हृदय से उसे जान लेते हैं, वे अमर हो जाते हैं अर्थात परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं। उस सनातन भगवान योगीजन साक्षात्कार करते हैं। [3] जो दस इन्द्रियां, मन और बुद्धि-इन बारह के समुदाय से युक्त हैं तथा जो परमात्म से सुरक्षित है, उस संसार रूप भयंकर नदी के विषयरूप मधुर जल को देखने और पीने वाले लोग उसी में गोता लगाते रहते हैं। इससे मुक्त करने वाले उस सनातन परमात्मा का योगीजन साक्षात्कार करते हैं। जैसा शहद की मक्खी आधे मास तक शहद का संग्रह करके फिर आधे मास तक उसे पीती रहती है, उसी प्रकार यह भ्रमणशील संसारी जीव इस जन्म में किये हुए संचित कर्म को परलोक में [4] भोगता है। परमात्मा ने समस्त प्राणियों के लिये उनके कर्मानुसार कर्म फल भोगरूप हवि की अर्थात समस्त भोग-पदार्थों की व्यवस्था कर रखी है। उस सनातन भगवान का योगी लोग साक्षात्कार करते हैं। जिसके विषयरूपी पत्ते स्वर्ण के समान मनोरम दिखायी पड़ते हैं, उस संसारूपी अश्वत्थवृक्ष पर आरूढ होकर पंख-हीन जीव कर्मरूपी पंख धारण कर अपनी वासना के अनुसार विभिन्न योनियों में पड़ते हैं अर्थात् एक योनि से दूसरी योनि में गमन करते हैं; किंतु योगीजन उस सनातन परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं।[1]
पूर्ण परमेश्र्वर से पूर्ण-चराचर प्राणी उत्पन्न होते हैं, पूर्ण सत्ता-स्फूर्ति पाकर ही वे पूर्ण प्राणी चेष्टा करते हैं, फिर पूर्ण से ही पूर्ण ब्रह्म में उनका उपसंहार[5] होता है तथा अंत में एक मात्र पूर्ण ब्रह्म ही शेष रह जाता है। उस सनातन परमात्मा का योगी लोग साक्षात्कार करते हैं। उस पूर्ण ब्रह्म से ही वायु का आविर्भाव हुआ है और उसी में वह चेष्टा करता है। उसी से अग्नि और सोम की उत्पत्ति हुई है तथा उसी में यह प्राण विस्तृत हुआ है। कहाँ तक गिनावें, हम अलग-अलग वस्तुओं का नाम बताने में असमर्थ हैं। तुम इतना ही समझों कि सब कुछ उस परमात्मा से ही प्रकट हुआ है। उस सनातन भगवान का योगी लोग साक्षात्कार करते हैं। अपान को प्राण अपने में विलीन कर लेता है, प्राण को चंद्रमा, चन्द्रमा को सूर्य और सूर्य को परमात्मा अपने में विलीन कर लेता है उस सनातन परमेश्र्वर का योगी लोग साक्षात्कार करते हैं। इस संसार-सलिल से ऊपर उठा हुआ हंस रूप परमात्मा अपने एक पाद[6]को ऊपर नहीं उठा रहा है यदि उसे भी वह ऊपर उठा ले तो सबका बन्ध और मोक्ष सदा के लिये मिट जायेगा। उस सनातन परमेश्र्वर का योगी जन का साक्षात्कार करते हैं हृदयदेश में स्थित वह अंगुष्ठमात्र जीवात्मा सूक्ष्म[7]शरीर के संबंध से सदा जन्म-मरण को प्राप्त होता है। उस सबके शासक, स्तुति के योग्य, सर्वसमर्थ, सबके आदि कारण एवं सर्वत्र विराजमान परमात्मा को मूढ़ जीव नहीं देख पाते किंतु योगीजन उस सनातन परमेश्र्वर का साक्षात्कार करते हैं
कोई साधन सम्पन्न हों या साधनहीन, वह ब्रह्म सब मनुष्यों में समानरूप से देखा जाता है। वह अपनी ओर से बद्ध और मुक्त दोनों के लिये समान है। अंतर इतना ही है कि इन दोनों में से जो मुक्त पुरुष है, वे ही आनन्द के मूल स्रोत परमात्मा को प्राप्त होते हैं, दूसरे नहीं। उसी सनातन भगवान का योगी लोग साक्षात्कार करते हैं। ज्ञानी पुरुष ब्रह्म विद्या के द्वारा इस लोक और परलोक दोनों के तत्त्व को जानकर ब्रह्म भाव को प्राप्त होता है। उस समय उसके द्वारा यदि अग्निहोत्र आदि कर्म न भी हुए हों तो भी वे पूर्ण हुए समझे जाते हैं। राजन! यह ब्रह्मविद्या तुम में लघुता न आने दे तथा इसके द्वारा तुम्हें वह ब्रह्म ज्ञान प्राप्त हो, जिसे धीर पुरुष ही प्राप्त करते हैं। उसी ब्रह्म विद्या के द्वारा योगी लोग उस सनातन परमात्मा को साक्षात्कार करते हैं। जो ऐसा महात्मा पुरुष है, वह भोक्ताभाव को अपने में विलीन करके उस पूर्ण परमेश्र्वर को जान लेता है। इस लोक में उसका प्रयोजन नष्ट नहीं होता अर्थात् वह कृतकृत्य हो जाता है। उस सनातन परमात्मा का योगी लोग साक्षात्कार करते हैं। कोई मन के समान वेग वाला ही क्यों न हो और दस लाख भी पंख लगाकर क्यों न उड़े, अंत में उसे हृदय स्थित परमात्मा में ही आना पड़ेगा। उस सनातन परमात्मा का योगीजन साक्षात्कार करते हैं। इस परमात्मा का स्वरूप सबके प्रत्यक्ष नहीं होता, जिनका अंत:करण विशुद्ध है, वे ही उसे देख पाते हैं। जो सबके हितैषी और मन को वश में करने वाले हैं तथा जिनके मन में कभी दु:ख नहीं होता एवं जो संसार के सब संबधों का सर्वथा त्याग कर देते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं। उस सनातन परमात्मा का योगी लोग साक्षात्कार करते हैं।[8]
जैसे साँप बिलों का आश्रय ले अपने को छिपाये रहते हैं, उसी प्रकार दम्भी मनुष्य अपनी शिक्षा और व्यवहार की आड़ में अपने दोषों को छिपाये रखते हैं। जैसे ठग रास्ता चलने वालों को भय में डालने के लिये दूसरा रास्ता बतलाकर मोहित कर देते हैं, मूर्ख मनुष्य उन पर विश्वास करके अत्यंत मोह में पड़ जाते हैं; इस प्रकार जो परमात्मा मार्ग में चलने-वाले हैं, उन्हें भी दम्भी पुरुष भय में डालने के लिये मोहित करने की चेष्टा करते हैं, किंतु योगीजन भगवत्कृपा से उनके फंदे में न आकर उस सनातन परमात्मा का ही साक्षात्कार करते हैं। सनत्सुजात कहते है- राजन! मैं कभी किसी के असत्कार का पात्र नहीं होता। न मेरी मृत्यु होती है न जन्म, फिर मोक्ष किसका और कैसे हो क्योंकि मैं नित्यमुक्त ब्रह्म हूँ। सत्य और असत्य सब कुछ मुझ सनातन समब्रह्म में स्थित है। एकमात्र मैं ही सत् और असत् की उत्पति का स्थान हूँ। मेरे स्वरूपभूत उस सनातन परमात्मा का योगी जन साक्षात्कार करते हैं।[8]
परमात्मा का न तो साधु कर्म से संबंध है और न असाधु कर्म से। यह विषमता तो देहाभिमानी मनुष्यों में ही देखी जाती है। ब्रह्म का स्वरूप सर्वत्र समान ही समझना चाहिये। इस प्रकार ज्ञानयोग से युक्त होकर आनन्दमय ब्रह्म को ही पाने की इच्छा करनी चाहिये। उस सनातन परमात्मा का योगी लोग साक्षात्कार करते हैं। इस ब्रह्मवेत्ता पुरुष के हृदय को निंदा के वाक्य संतप्त नहीं करते। ‘मैंने स्वाध्याय नहीं किया, अग्निहोत्र नहीं किया’ इत्यादि बातें भी उसके मन में तुच्छ भाव नहीं उत्पन्न करतीं। ब्रह्मविद्या शीघ्र ही उसे वह स्थिर बुद्धि प्रदान करती है, जिसे धीर पुरुष ही प्राप्त करते हैं। उस सनातन परमात्म का योगी जन साक्षात्कार करते हैं। इस प्रकार जो समस्त भूतों में परमात्मा को निरंतर देखता है, वह ऐसी दृष्टि प्राप्त होने के अनंतर अनयान्य विषय-भोगों से आसक्त मनुष्यों के लिये क्या शोक करे? जैसे सब ओर जल से परिपूर्ण बड़े जलाशय के प्राप्त होने पर जल के लिये अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार आत्मज्ञानी के लिये सम्पूर्ण वेदों में कुछ भी प्राप्त करने योग्य शेष नहीं रह जाता। यह अंगष्ठमात्र अंतर्यामी परमात्मा सबके हृदय के भीतर स्थित है, किंतु सबको दिखायी नहीं देता। वह अजन्मा, चराचर स्वरूप और दिन-रात सावधान रहने वाला है। जो उसे जान लेता है, वह ज्ञानी परमानंद में निमग्न हो जाता है।
सनत्सुजात कहते है- धृतराष्ट्र! मैं ही सबकी माता और पिता माना गया हूँ, मैं ही पुत्र हूँ और सबकी आत्मा भी मैं ही हूँ। जो है, वह भी और जो नहीं है, वह भी मैं ही हूँ। भारत! मैं ही तुम्हारा बूढ़ा पितामह, पिता और पुत्र भी हूँ। तुम सब लोग मेरी ही आत्मा में स्थित हो, फिर भी वास्तव में न तुम हमारे हो और न हम तुम्हारे हैं। आत्मा ही मेरा स्थान है और आत्मा ही मेरा जन्म[9] है। मैं सब में ओत-प्रोत और अपनी अजर[10] महिमा में स्थित हूँ। मैं अजन्मा, चराचर स्वरूप तथा दिन-रात सावधान रहने वाला हूँ। मुझे जानकर ज्ञानी पुरुष परम प्रसन्न हो जाता है। परमात्मा सूक्ष्म से भी सूक्ष्म तथा विशुद्ध मन वाला है। वही सब भूतों में अंतर्यामी रूप से प्रकाशित है। सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय कमल में स्थित उस परम पिता को ज्ञानी पुरुष ही जानते हैं।[11]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 46 श्लोक 1-9
- ↑ प्रस्तुत रूपक का कठोपनिषद् प्रथम अध्याय की तीसरी बल्ली के तीसरे से लेकर नवें श्र्लोक तक विस्तृत विवरण मिलता है।
- ↑ इससे प्राय: मिलता-जुलता एक श्लोक कठोपनिषद में मिलता है। न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्। हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति
- ↑ विभिन्न योनियों में
- ↑ विलय
- ↑ जगत
- ↑ वहीं अंतर्यामी रूप से स्थित
- ↑ 8.0 8.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 46 श्लोक 10-20
- ↑ उद्गम
- ↑ नित्य-नूतन
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 46 श्लोक 21-31
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| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
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| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
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| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना
| पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना
| पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
| पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना
| धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति
रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन
| कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद
| भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन
| पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा
| पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन
| भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन
अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण
| अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना
| अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग
| अम्बा और शैखावत्य संवाद
| होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप
| अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप
| अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह
| परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप
| परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना
| परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना
| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
| भीष्म और परशुराम का युद्ध
| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
| भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
| अम्बा की कठोर तपस्या
| अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश
| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
| शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप
| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
| स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप
| भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
| भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन
| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
| कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान
| पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान
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