- सभाभवन से बाहर जाकर दुर्योधन गुप्त रूप से मंत्रणा कर शकुनि, दु:शासन व कर्ण के साथ श्रीकृष्ण को बंदी बनाने का बात करता है, जिसे सात्यकि जान जाते हैं और सभाभवन में जाकर दुर्योधन के इस कुकर्म के विषय में सबको बता देते हैं। तब श्रीकृष्ण धृतराष्ट्र से कहते हैं कि यदि कौरव मुझे कैद करना चाहते हैं तो मैं आपके पुत्रों को इसकी आज्ञा देता हूँ। धृतराष्ट्र व विदुर दुर्योधन को समझाते हुए ये पापपूर्ण कार्य करने के लिए मना करते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत अध्याय 130 में निम्न प्रकार हुआ है[1]-
विषय सूची
धृतराष्ट्र द्वारा दुर्योधन को समझाना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! विदुर के ऐसा कहने पर भगवान केशव ने समस्त सुहृदों को सुनते हुए राजा धृतराष्ट्र की ओर देखकर कहा- ‘राजन! ये दुष्ट कौरव यदि कुपित होकर मुझे बलपूर्वक पकड़ सकते हों तो आप इन्हें आज्ञा दे दीजिये। फिर देखिये, ये मुझे पकड़ पाते हैं या मैं इन्हें बंदी बनाता हूँ। यद्यपि क्रोध में भरे हुए इन समस्त कौरवों को मैं बाँध लेने की शक्ति रखता हूँ, तथापि मैं किसी प्रकार भी कोई निंदित कर्म अथवा पाप नहीं कर सकता। आपके पुत्र पांडवों का धन लेने के लिए लुभाए हुए हैं, परंतु इन्हें अपने धन से भी हाथ धोना पड़ेगा। यदि ये ऐसा ही चाहते हैं, तब तो युधिष्ठिर का काम बन गया। भारत! मैं आज ही इन कौरवों तथा इनके अनुगामियों को कैद करके यदि कुंती के पुत्रों के हाथ में सौंप दूँ तो क्या बुरा होगा? परंतु भारत! महाराज! आपके समीप मैं क्रोध अथवा पापबुद्धि से होने वाला यह निंदित कर्म नहीं प्रारम्भ करूंगा। नरेश्वर! यह दुर्योधन जैसा चाहता है, वैसा ही हो। मैं आपके सभी पुत्रों को इसके लिए आज्ञा देता हूँ।'
यह सुनकर धृतराष्ट्र ने विदुर से कहा- ‘तुम उस पापात्मा राज्यलोभी दुर्योधन को उसके मित्रों, मंत्रियों, भाइयों, तथा अनुगामी सेवकों सहित शीघ्र मेरे पास बुला लाओ। यदि पुन: उसे सन्मार्ग पर उतार सकूँ तो अच्छा होगा।' तब विदुर जी राजाओं से घिरे हुए दुर्योधन को उसकी इच्छा न होते हुए भी भाइयों सहित पुन: सभा में ले आए। उस समय कर्ण, दु:शासन तथा अन्य राजाओं से भी घिरे हुए दुर्योधन से राजा धृतराष्ट्र ने कहा- ‘नृशंस महापापी! नीच कर्म करने वाले ही तेरे सहायक हैं। तू उन पापी सहायकों से मिलकर पापकर्म ही करना चाहता है। वह कर्म ऐसा है, जिसकी साधु पुरुषों ने सदा निंदा की है। वह अपयशकारक तो है ही, तू उसे कर भी नहीं सकता; परंतु तेरे जैसा कुलांगार और मूर्ख मनुष्य उसे करने की चेष्टा करता है।[1] सुनता हूँ, तू अपने पापी सहायकों से मिलकर इन दुर्धर्ष एवं दुर्जय वीर कमलनयन श्रीकृष्ण को कैद करना चाहता है। ओ मूढ़! इंद्र सहित सम्पूर्ण देवता भी जिन्हें बलपूर्वक अपने वश में नहीं कर सकते, उन्हीं को तू बंदी बनाना चाहता है। तेरी यह चेष्टा वैसी ही है, जैसे कोई बालक चंद्रमा को पकड़ना चाहता हो। देवता, मनुष्य, गंधर्व, असुर और नाग भी संग्राम भूमि में जिनका वेग नहीं सह सकते, उन भगवान श्रीकृष्ण को तू नहीं जानता। जैसे वायु को हाथ से पकड़ना दुष्कर है, चंद्रमा को हाथ से छूना कठिन है और पृथ्वी को सिर पर धारण करना असंभव है, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण को बलपूर्वक पकड़ना दुष्कर है।'[2]
विदुर द्वारा दुर्योधन को समझाना
धृतराष्ट्र के ऐसा कहने पर विदुर ने भी अमर्ष में भरे हुए धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन के पास जाकर इस प्रकार कहा। विदुर बोले- 'दुर्योधन! इस समय मेरी बात पर ध्यान दो। सौभद्वार में द्विविद नाम से प्रसिद्ध एक वानरों का राजा रहता था, जिसने एक दिन पत्थरों की बड़ी भारी वर्षा करके भगवान श्रीकृष्ण को आच्छादित दिया। वह पराक्रम करके सभी उपायों से श्रीकृष्ण को पकड़ना चाहता था, परंतु इन्हें कभी पकड़ न सका। उन्हीं श्रीकृष्ण को तुम बलपूर्वक अपने वश में करना चाहते हो। पहले की बात है, प्राग्ज्योतिषपुर में गए हुए श्रीकृष्ण को दानवों सहित नरकासुर ने भी वहाँ बंदी बनाने की चेष्टा की, परंतु वह भी वहाँ सफल न हो सका। उन्हीं को तुम बलपूर्वक अपने वश में करना चाहते हो। अनेक युगों तथा असंख्य वर्षों की आयु वाले नरकासुर को युद्ध में मारकर श्रीकृष्ण उसके यहाँ से सहस्रों राजकन्याओं को उद्धार करके ले गए और उन सबके साथ उन्होंने विधिपूर्वक विवाह किया। निर्मोचन में छ: हजार बड़े-बड़े असुरों को भगवान ने पाशों में बाँध लिया। वे असुर भी जिन्हें बंदी न बना सके, उन्हीं को तुम बलपूर्वक वश में करना चाहते हो। भरतश्रेष्ठ! इन्होंने ही बाल्यावस्था में बकी पूतना का वध किया था और गौओं की रक्षा के लिए अपने हाथ पर गोवर्धन पर्वत को धारण किया था। अरिष्टासुर, धेनुक, महाबली चानूर, अश्वराज केशी और कंस भी लोकहित के विरुद्ध आचरण करने पर श्रीकृष्ण के ही हाथ से मारे गए थे। जरासंध, दंतवक्र, पराक्रमी शिशुपाल और बाणासुर भी इन्हीं के हाथों से मारे गए हैं तथा अन्य बहुत से राजाओं का भी इन्होंने ही संहार किया है।
अमित तेजस्वी श्रीकृष्ण ने राजा वरुण पर विजय पायी है। इन्होंने अग्निदेव को भी पराजित किया है और पारिजात हरण करते समय साक्षात शचीपति इन्द्र को भी जीता है। इन्होंने एकार्णव के जल में सोते समय मधु और कैटभ नामक दैत्यों को मारा था और दूसरा शरीर धारण करके हयग्रीव नामक राक्षस का भी इन्होंने ही वध किया था। ये ही सबके करता हैं, इनका दूसरा कोई करता नहीं है। सबके पुरुषार्थ के कारण भी यही हैं। ये भगवान श्रीकृष्ण जो-जो इच्छा करें, वह सब अनायास ही कर सकते हैं। अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले इन भगवान गोविंद का पराक्रम भयंकर है। तुम इन्हें अच्छी तरह नहीं जानते। ये क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प के समान भयानक हैं। ये सत्पुरुषों द्वारा प्रशंसित एवं तेज की राशि हैं। अनायास ही महान पराक्रम करने वाले महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण का तिरस्कार करने पर तुम अपने मंत्रियों सहित उसी प्रकार नष्ट हो जाओगे, जैसे पतंग आग में पड़कर भस्म हो जाता है।[2]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 130 श्लोक 21-35
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 130 श्लोक 36-53
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| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
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| अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह
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| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
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| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
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| अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश
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| शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप
| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
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| भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
| भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन
| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
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