- महाभारत उद्योग पर्व में यानसंधि पर्व के अंतर्गत 52वें अध्याय में 'धृतराष्ट्र द्वारा अर्जुन से प्राप्त होने वाले भय का वर्णन' का वर्णन है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
धृतराष्ट्र द्वारा अर्जुन से प्राप्त होने वाले भय का वर्णन
धृतराष्ट्र बोले- संजय! जिनके मुँह से कभी कोई झूठ बात निकलती हमने नहीं सुनी है तथा जिनके पक्ष में धनंजय जैसे योद्धा हैं, उन धर्मराज युधिष्ठिर को[2] तीनों लोकों का राज्य भी प्राप्त हो सकता है। मैं निरन्तर सोचने-विचारने पर भी युद्ध में गाण्डीवधारी अर्जुन का ही सामना करने वाले किसी ऐसे वीर को नहीं देखता, जो रथ पर आरुढ़ हो उनके सम्मुख जा सके। जो हृदय को विदीर्ण कर देने वाली कर्णी और नालीक आदि बाणों की निरन्तर वर्षा करते हैं, उन गाण्डीवधन्वा अर्जुन का युद्ध में सामना करने वाला कोई भी समकक्ष योद्धा नहीं है। यदि बलवानों में श्रेष्ठ, अस्त्रविद्या के पारंगत विद्वान तथा युद्ध में कभी पराजित न होने वाले, मनुष्यों में अग्रगण्य वीरवर द्रोणाचार्य और कर्ण अर्जुन पर विजय प्राप्त होने में महान संदेह रहेगा। मैं तो देखता हूँ मेरी विजय होगी ही नहीं, क्योंकि कर्ण दयालु और प्रमादी है और आचार्य द्रोण वृद्ध होने के साथ ही अर्जुन के गुरु हैं।
धृतराष्ट्र द्वारा अर्जुन के बल का वर्णन
कुन्तीपुत्र अर्जुन समर्थ और बलवान है। उनका धनुष भी सुदृढ़ है। वे आलस्य और थकावट को जीत चुके हैं, अत: उनके साथ जो अत्यन्त भयंकर युद्ध छिडे़गा, उसमें सब प्रकार से उनकी ही विजय होगी। समस्त पाण्डव अस्त्रविद्या के ज्ञाता, शूरवीर तथा महान यश को प्राप्त हैं। वे समस्त देवताओं का ऐश्वर्य छोड़ सकते हैं, परंतु अपनी विजय से मुँह नहीं मोडे़ंगे। निश्चय ही द्रोणाचार्य और कर्ण का वध हो जाने पर हमारे पक्ष के लोग शान्त हो जायेगे अथवा अर्जुन के मारे जाने पर पाण्डव शान्त हो बैठेंगे, परंतु अर्जुन का वध करने वाला तो कोई है ही नहीं, उन्हें जीतने वाला भी संसार में कोई नहीं है। मेरे मन्दबुद्धि पुत्रों के प्रति उनके हृदय में जो क्रोध जाग उठा है, वह कैसे शान्त होगा? दूसरे योद्धा भी अस्त्र चलाना जानते हैं, परंतु वे कभी हारते हैं और कभी जीतते भी हैं। केवल अर्जुन ही ऐसे हैं, जिनकी निरन्तर विजय ही सुनी जाती है। खाण्डवदाह के समय अर्जुन ने मुख्य-मुख्य तैंतीस[3] देवताओं को युद्ध के लिये ललकार कर अग्निदेव को तृप्त किया और सभी देवताओं को जीत लिया। उनकी कभी पराजय हुई हो, इसका पता हमें आज तक नहीं लगा।
तात! साक्षात भगवान श्रीकृष्ण, जिनका स्वभाव और आचार-व्यवहार भी अर्जुन के ही समान है, अर्जुन का रथ हांकते हैं, अत: इन्द्र की विजय की भाँति उनकी भी विजय निश्चित है। श्रीकृष्ण और अर्जुन एक रथ पर उपस्थित हैं और गाण्डीव धनुष की प्रत्यञ्चा चढ़ी हुई है, इस प्रकार ये तीनों तेज एक ही साथ एकत्र हो गये हैं, यह हमारे सुनने में आया है। हम लोगों के यहाँ न तो वैसा धनुष है, न अर्जुन जैसा पराक्रमी योद्धा है और न श्रीकृष्ण के समान सारथि ही है, परंतु दुर्योधन के वशीभूत हुए मेरे मूर्ख पुत्र इस बात को नहीं समझ पाते।[1]
तात संजय! अपने तेज से जलता हुआ वज्र किसी के मस्तक पर पड़कर सम्भव हैं, उसके जीवन को बचा दे, परंतु किरीटधारी अर्जुन के चलाये हुए बाण जिसे लग जायेगे, उसे जीवित नहीं छोडे़ंगे। मुझे तो वीर धनंजय युद्ध में बाणों को चलाते, योद्धाओं के प्राण लेते और अपनी बाण वर्षा द्वारा उनके शरीरों से मस्तकों को काटते हुए से प्रतीत हो रहे हैं। क्या गाण्डीव धनुष से प्रकट हुआ बाणमय तेज सब ओर प्रज्वलित-सा होकर मेरे पुत्रों की विशाल वाहिनी को युद्ध में जलाकर भस्म कर डालेगा? मुझे स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि श्रीकृष्ण के रथ-संचालन की आवाज सुनकर भरतवंशियों की यह सेना सव्यसाची अर्जुन के भय से पीड़ित और नाना प्रकार से आतंकित हो जायगी। जैसे वायु के वेग से बढ़ी हुई आग सब और फैलकर प्रचण्ड लपटों से युक्त हो घास-फूस अथवा जंगल को जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार अर्जुन मेरे पुत्रों को दग्ध कर डालेंगे। जिस समय शस्त्रपाणि किरीटधारी अर्जुन समरभूमि में रोषपूर्वक पैने बाण समूहों की वर्षा करेंगे, उस समय विधाता के रचे हुए सर्वसंहारक काल के समान उनसे पार पाना असम्भव हो जायगा। उस समय मैं महलों में बैठा हुआ बार-बार कौरवों की विविध अवस्थाओं की कथा सुनता रहूंगा। अहो! युद्ध के मुहाने पर निश्चय ही सब ओर से यह भरतवंश का विनाश आ पहुँचा है।[4]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 52 श्लोक 1-13
- ↑ भूमण्डल का कौन कहे
- ↑ कुछ विद्वान् ‘त्रयस्त्रिशत् समाअअहूय’ ऐसा पाठ मानकर आर्ष संधि की कल्पना करके यह अर्थ करते है कि तैंतीस वर्ष की अवस्था बीत जाने पर अर्जुन ने अग्निदेव को खाण्डव वन में बुलाकर तृप्त किया था।’
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 52 श्लोक 14-20
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| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
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| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
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| पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
| पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना
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