दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन

श्रीकृष्ण युधिष्ठिर को कौरवसभा में भीष्म, द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के कहे गये महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन करने के बाद, अब वे धृतराष्ट्र द्वारा दुर्योधन को युक्तिसंगत वचन सुनाने का वर्णन कर रहे हैं जिसमे धृतराष्ट्र दुर्योधन से कह रहे हैं कि 'तू कैसे इस राज्य का अपहरण कर सकता है? नरेन्‍द्र! तू मोह छोड़कर वाहनों और अन्य सामग्रियों सहित कम से कम आधा राज्‍य पाण्‍डवों को दे दे', जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत 149वें अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचन

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- राजन! गान्धारी के ऐसा कहने पर राजा धृतराष्‍ट्र ने समस्‍त राजाओं के बीच दुर्योधन से इस प्रकार कहा- बेटा दुर्योधन! मेरी यह बात सुन। तेरा कल्‍याण हो। यदि तेरे मन में पिता के लिये कुछ भी गौरव है तो तुझसे जो कुछ कहूँ, उसका पालन कर। सबसे पहले प्रजापति सोम हुए, जो कौरववंश की वृद्धि के कारण हैं। सोम से छठी पीढी में नहुष पुत्र ययाति का जन्‍म हुआ। ययाति के पाँच पुत्र हुए, जो सब-के-सब श्रेष्‍ठ राजर्षि थे। उनमें महातेजस्‍वी एवं शक्तिशाली ज्‍येष्‍ठ पुत्र यदु थे और सबसे छोटे पुत्र का नाम पुरु हुआ, जिन्‍होंने हमारे इस वंश की वृद्धि की है। वे वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा के गर्भ से उत्‍पन्‍न हुए थे। 'भरतश्रेष्‍ठ! यदु देवयानी के पुत्र थे। तात! वे अमित तेजस्‍वी शुक्राचार्य के दौहित्र लगते थे। वे बलवान, उत्‍तम पराक्रम से सम्‍पन्‍न एवं यादवों के वंश प्रर्वतक हुए थे। उनकी बुद्धि बड़ी मन्‍द थी और उन्‍होंने घमंड में आकर समस्‍त क्षत्रियों का अपमान किया था। ’बल के घमंड से वे इतने मोहित हो रहे थे कि पिता के आदेश पर चलते ही नहीं थे किसी से पराजित न होने वाले यदु अपने भाइयों और पिता का भी अपमान करते थे। चारों समुद्र जिसके अन्‍त में है, उस भूमण्‍डल में यदु ही सबसे अधिक बलवान थे। वे समस्‍त राजाओं को वश में करके हस्तिनापुर में निवास करते थे। ’गान्‍धारीपुत्र! यदु के पिता नहुषनन्‍दन ययाति ने अत्‍यन्‍त कुपित होकर यदु को शाप दे दिया और उन्‍हें राज्‍य से भी उतार दिया। अपने बल का घमंड रखने वाले जिन-जिन भाइयों ने यदु का अनुसरण किया, ययाति ने कुपित होकर अपने उन पुत्रों को भी शाप दे दिया। तदनन्तर अपने अधीन रहने वाले आज्ञापालक छोटे पुत्र पुरु को नृपश्रेष्‍ठ ययाति ने राज्‍य पर बिठाया। इस प्रकार यह सिद्ध है कि ज्‍येष्‍ठ पुत्र भी यदि अहंकारी हो तो उसे राज्‍य की प्राप्ति नहीं होती और छोटे पुत्र भी वृद्ध पुरुषों की सेवा करने से राज्‍य पाने के अधिकारी हो जाते हैं।

इसी प्रकार मेरे पिता के पितामह राजा प्रतीप सब धर्मों के ज्ञाता एवं तीनों लोकों में विख्‍यात थे। धर्मपूर्वक राज्‍य का शासन करते हुए नृपप्रवर प्रतीप के तीन पुत्र उत्‍पन्‍न हुए, जो देवताओं के समान तेजस्‍वी और यशस्‍वी थे। तात! उन तीनों में सबसे श्रेष्‍ठ थे देवापि! उनके बाद वाले राजकुमार का नाम वाह्लीक था तथा प्रतीप के तीसरे पुत्र मेरे धैर्यवान पितामह शान्‍तनु थे। ’नृपश्रेष्‍ठ देवापि महान तेजस्‍वी होते हुए भी चर्मरोग से पीड़ित थे। वे धार्मिक, सत्‍यवादी, पिता की सेवा में तत्‍पर, साधु पुरुषों द्वारा सम्‍मानित तथा नगर एवं जनपद- निवासियों के लिये आदरणीय थे। देवापि ने बालकों से लेकर वृद्धों तक सभी के हृदय में अपना स्‍थान बना लिया था। वे उदार, सत्‍यप्रतिज्ञ और समस्‍त प्राणियों के हित में तत्‍पर रहने वाले थे। पिता तथा ब्राह्मणों के आदेश के अनुसार चलते थे। वे बाह्लीक तथा महात्‍मा शान्तनु के प्रिय बन्‍धु थे। परस्‍पर संगठित रहने वाले उन तीनों महामना बन्धुओं का परस्‍पर अच्‍छे भाई का-सा स्‍नेहपूर्ण बर्ताव था। तदनन्‍तर कुछ काल बीतने पर बूढ़े नृपश्रेष्‍ठ प्रतीप ने शास्‍त्रीय विधि के अनुसार राज्‍याभिषेक के लिये सामग्रियों का संग्रह कराया। उन्‍होंने देवापि के मंगल के लिये सभी आवश्‍यक कृत्‍य सम्‍पन्‍न कराये परंतु उस समय सब ब्राह्मणों तथा वृद्ध पुरुषों ने नगर और जनपद के लोगों के साथ आकर देवापि का राज्‍याभिषेक रोक दिया। किंतु राज्‍याभिषेक रोकने की बात सुनकर राजा प्रतीप का गला भर आया और वे अपने पुत्र के लिए शोक करने लगे।[1] इस प्रकार यद्यपि देवापि उदार, धर्मज्ञ, सत्‍यप्रतिज्ञ तथा प्रजाओं के प्रिय थे, तथापि पूर्वोक्‍त चर्मरोग के कारण दूषित मान लिये गये।

जो किसी अंग से हीन हो उस राजा का देवता लोग अभिनन्‍दन नहीं करते हैं इसीलिये उन श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों ने नृप-प्रवर प्रतीप को देवापि का अभिषेक करने से मना कर दिया था। इससे राजा को बड़ा कष्‍ट हुआ। वे पुत्र के लिये शोकमग्‍न हो गये। राजा को रोका गया देखकर देवापि वन में चले गये। बाह्लीक परम समृद्धिशाली राज्‍य तथा पिता और भाइयों को छोड़कर मामा के घर चले गये। राजन! तदनन्‍तर पिता की मृत्‍यु होने के पश्‍चात बाह्लीक की आज्ञा लेकर लोक विख्‍यात राजा शान्तनु ने राज्‍य का शासन किया।

धृतराष्ट्र द्वारा पाण्डवों को आधा राज्य देने के लिये आदेश का वर्णन

भारत! इसी प्रकार मैं भी अंगहीन था इसलिये ज्‍येष्‍ठ होने पर भी बुद्धिमान पाण्‍डु एवं प्रजाजनों के द्वारा खूब सोच विचार कर राज्‍य से वंचित कर दिया गया। पाण्‍डु ने अवस्‍था में छोटे होने पर भी राज्‍य प्राप्‍त किया और वे एक अच्छे राजा बनकर रहे हैं। शत्रुदमन दुर्योधन! पाण्‍डु की मृत्‍यु के पश्‍चात उनके पुत्रों का ही यह राज्‍य है। मैं तो राज्‍य का अधिकारी था ही नहीं, फिर तू कैसे राज्‍य लेना चाहता है? जो राजा का पुत्र नहीं है, वह उसके राज्‍य का स्‍वामी नहीं हो सकता। तू पराये धन का अपहरण करना चाहता है। महात्‍मा युधिष्ठिर राजा के पुत्र हैं, अत: न्‍यायत: प्राप्‍त हुए इस राज्‍य पर उन्‍हीं का अधिकार है। वे ही इस कौरव-कुल का भरण-पोषण करने वाले, स्‍वामी तथा इस राज्‍य के शासक हैं। उनका प्रभाव महान है। वे सत्‍य‍प्रतिज्ञ और प्रमाद‍ रहित हैं। शास्‍त्र की आज्ञा के अनुसार चलते और भाई-बंधुओं पर सद्भाव रखते हैं। युधिष्ठिर पर प्रजावर्ग का विशेष प्रेम है। वे अपने सुहृदों पर कृपा करने वाले, जितेन्द्रिय तथा सज्‍जनों का पालन पोषण करने वाले हैं। क्षमा, सहनशीलता, इन्द्रिसंयम, सरलता, सत्‍य-परायणता, शास्‍त्रज्ञान, प्रमादशून्‍यता, समस्‍त प्राणियों पर दयाभाव तथा गुरुजनों के अनुशासन में रहना आदि समस्‍त राजोचित गुण युधिष्ठिर में विद्यमान हैं। तू राजा का पुत्र नहीं है। तेरा बर्ताव भी दुष्‍टों के समान है। तू लोभी तो है ही, बन्‍धु-बांधवों के प्रति सदा पापपूर्ण है। तू कैसे इसका अपहरण कर सकेगा? नरेन्‍द्र! तू मोह छोड़कर वाहनों और अन्‍यान्‍य सामग्रियों सहित कम से कम आधा राज्‍य पाण्‍डवों को दे दे। सभी अपने छोटे भाइयों के साथ तेरा जीवन बचा रह सकता है।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 149 श्लोक 1-23
  2. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 149 श्लोक 24-36

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महाभारत उद्योग पर्व में उल्लेखित कथाएँ


सेनोद्योग पर्व
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संजययान पर्व
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प्रजागर पर्व
धृतराष्ट्र-विदुर संवाद | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर के नीतियुक्त वचन | विदुर द्वारा सुधंवा-विरोचन विवाद का वर्णन | विदुर का धृतराष्ट्र को धर्मोपदेश | दत्तात्रेय एवं साध्य देवताओं का संवाद | विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को समझाना | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का हितोपदेश | विदुर के नीतियुक्त उपदेश | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का नीतियुक्त उपदेश | विदुर द्वारा धर्म की महत्ता का प्रतिपादन | विदुर द्वारा चारों वर्णों के धर्म का सक्षिप्त वर्णन

सनत्सुजात पर्व
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भगवद्यान पर्व
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सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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